“विकार”
तृष्णा है, लालच का नाम
जिससे बिगड़े ,सारे काम।
मन में खुशी तो, हो ना पाए
बनते सारे, काम मिट जाए।
तृष्णा है, अंदर का अवगुण
जिसमें फसते हैं, कुछ ही गण।
तृष्णा लालच का, मोह जगाए,
मन की प्यास, बढ़ाती जाए ।
कब यह ,अवगुण घर कर जाए
साधारण विशेष जन , समझ ना पाए।
मन की तृष्णा, जब पूरी हो जाए
फिर तो मन में ,लगन लगाए ।
तृष्णा ऐसा ,है हथियार
मन पर करता ,छुपकर वार ।
मन दुष्चक्र में ,यूं फंस जाए
नर नारी संत महात्मा, बच ना पाए ।
जब हो मन पर, तृष्णा का वार
रुको ठहरो ,मन में करो ,इसका विचार।
फिर, आगे कदम बढ़ाओ यार
डटकर इस पर करो प्रहार,
यही है तृष्णा का उपचार।