वासना और करुणा
वासना और करुणा
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साथ-साथ रहती दो बहना,
एक वासना दूजा करुणा।
वासना तन को दग्ध करती ,
विक्षिप्त मन कर कामाग्नि सुलगाती।
मधुप मृदुल आघात करके,
विकल मन में मोह बांधती।
आड़ में छिपकर किसी की,
स्पर्श का प्रहार करती।
झकझोरती वासना निरंकुश ,
कठोर दानव सा सरीखा।
ताकती हर देह कोमल ,
करके विकृत भावना को।
गर्व से कहती थी वो फिर ,
ध्यान से सुन लो रे करुणा __
मैं प्रकृति का हूँ कारक…
मुझसे ही संसार चलता।
मैं यदि मुख मोड़ लूँ तो,
प्रकृति जीवन चक्र थमता।
सुनकर ये असहज बातें __
मन-ही-मन करुणा झल्लाई।
दया से फिर वो द्रवित होकर ,
प्रेम की भाषा बतलाई।
कहती तुझको जिस्म प्यारा ,
रूह में तो, मैं हूँ बसती।
सजल नयन अश्रु से सिंचित ,
वीरान दिल, मैं जान भरती।
प्रेम की गहराइयों को __
तुम भला क्या जानती हो.. ?
ढल गया यदि यौवन तरूणतम ,
फिर उसे न पहचानती हो ।
तुम यदि कोई प्रेम करती ,
वफ़ा का भी मोल होता।
ना किसी का दिल बिखरता ,
ना ही कोई घर उजड़ता।
तेरी बस शैतान नजरें ,
स्वार्थ तन-धन ढूंढती है।
धर्म का हर मर्म मैं हूँ ,
रग-रग मे मासूमियत घोलती हूँ ।
ढल गया यदि कनक यौवन,
प्रेम अलौकिक खोजती हूँ ।
सुषुप्त मानव चेतना को ,
सदा मैं ही जागृत करती हूँ।
प्रकृति का श्रृंगार हूँ मैं ,
जगत का आधार हूँ मैं।
बिना मेरे,कोई मानव न बनता ,
दानव था दानव ही रहता।
रहो मर्यादित तुम यदि बहना ,
बस जाऊँ मैं, हर दिल मे करुणा ।
मौलिक एवं स्वरचित
मनोज कुमार कर्ण