वासंती बयार
बहकी- बहकी सी लगे, ये वासंती बयार।
सरसों से आंचल सजा, बैठी घर के द्वार।।
धरा ने ओढ़ी चूनर ,किया नव श्रृंगार।
पात- पात खिल उठा ,पा मधु मादक प्यार।।
जाग उठे चराचर सुन, मौसम की मनुहार।
धन्य हुई धरा रूपसि, पा अनंग उपहार।।
हवा कुनकुनी धूप में, रही केश संवार।
भवॅंरों- सी गुंजन करे, वह मतवाली नार।।
अलबेले ऋतुराज का ,अलबेला उपकार।
सतरंगी सपन पे दी, झीनी चादर डार।।
मदहोश हो गई प्रकृति ,छेड़े ऐसे तार।
सरगम भी सरगम हुई ,गाकर राग मल्हार।।
सब बदला ऋतुराज ने, किया प्रेम ही सार।
नाच उठा मन -मयूरा, पा भावों का हार।।
दहक उठा पलाश पिया, विरहन करे पुकार।
तुम बसे परदेस पिया , सूना सब संसार।।
मौन मूक मुखरित हुए, फूट पड़े उद् गार।
आडोलित हुआ हृदय ,कैसे पाए पार?
—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव,
अलवर (राजस्थान)