वार्तालाप
समय ने नियति से कहा , तू सब कुछ करती है,
लोग नाहक मुझे दोष देते हैं ,
नियति बोली , मैं कुछ भी अपनी मर्जी से नही करती,
सृष्टि रचयिता मुझे ये सब करने को कहते हैं ,
मैं तो उनके आदेश का पालन करती हूं ,
अपनी ओर से उसमें कुछ ना जोड़ती हूं ,
समय ने कहा, मेरा काम है निर्बाध गति से चलना,
पर तू मेरी राह में बाधा उत्पन्न ना करना ,
नियति ने कहा , मुझे तो रचयिता के आदेश पर पृथ्वी में जीवन के अस्तित्व का है संतुलन करना ,
मानवरूपी प्राणी जो है , अपने दंभ में
अन्य प्राणियों का अस्तित्व भूल चुका है ,
अपने द्वारा बनाई विनाश लीला में
खुद ही उलझ चुका है ,
उसने विनाश के लिए एटम बम, रासायनिक बम,
और अब जैविक विषाणु बनाकर
अपने ही विनाश का कारक बनाया ,
यहां तक कि अपने ही प्रतिरूप की रचना कर
मानव रूपी क्लोन बनाया ,
उसने पृथ्वी में जैविक उत्पत्ति के
प्राकृतिक नियम का उल्लंघन कर रचयिता को रुष्टकर अपने ही विनाश को बुलाया ,
प्राकृतिक संपदाओं का निरंतर निष्ठुर दोहन कर
उन्हें अस्तित्व विहीन बनाया ,
पृथ्वी में अन्य जीवो का नाश कर उनके
अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाया ,
उसने अपरिमित आकांक्षाओं से पृथ्वी ही नहीं
अन्य ग्रहों में अपना अस्तित्व जमाने का
दुस्साहस जताया ,
सृष्टि रचयिता को रुष्ट कर मानव ने स्वयं ही
अपने कर्मों से काल को बुलाया ,
नियति बोली इसमें मेरा कोई हाथ नहीं ,
मैं तो अकिंचन आदेशपालक काल के साथ नहीं ,
समय ! तुम्हारी अनवरत बढ़ते रहने की
प्रकृति सतत् ,
मैं नियती ! अपने आदेश निर्वाह में संलग्न
निष्ठावान सतत् ,
हम क्यों व्यर्थ आपस में वाद-विवाद करें ?
जिसके जैसे कर्म है वैसा वो भुगतेगा,
हम क्यों चिंता करें ?