वह नारी
व्यस्तताओं के मकड़ जाल में
उलझा हुआ जीवन का दामन।
फिर भी काव्य-सृजन हित कैसे
चुन लेती अमर क्षण मनभावन।
लपक झपक कर काम-काज
विद्यादान हेतु बने शारदा।
हो जाती है वह नित्य प्रस्तुत
बन नव सुमनों की वरद वरदा।
ज्ञान ज्योति के नए उजास से
अपनी ज्ञान-पिपासा बुझाती।
घर का हर कोना ऋणी उसका
अलंकृत कर नए सपन सजाती।
बिना थके मचलती सरिता- सी
करती बच्चों की मान मनुहार।
स्वर्णिम किरण सी रही चमकती
घर में बरसाती पावन प्यार।
हर रिश्ते को गौरव गरिमा दे
रिश्तों की बगिया को महकाती।
वह नारी दोहरा भार उठा
अनगिनत जीवन सफल बनाती।
उत्सवों पर चंचला चपला सी
वह खुद को लेती साज संवार।
सभ्यता सौम्यता की मूरत
न्यौछावर उस पर सकल संसार।
—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव,
अलवर (राजस्थान)