“वसंत की अंतर्वेदना”
“वसंत की अंतर्वेदना”
मैं वसंत हूं, मैं चिर वसंत हूं.. .
नियत समय हर साल आता हूँ।
निष्ठुर शरद की विदाई करके ,
रोम-रोम पुलकित करता हूँ।
अल्हड़ और मदमस्त पवन से
मन के तार झंकृत करता हूँ।
स्फूर्ति, उमंग ,उत्साह जगाकर
नव चेतना जागृत करता हूँ ।
पर ये वसंतोत्सव अंतर्बोध कहाँ है ,
यदि प्रीत का राग न छेड़ा मन में ।
मैं वसंत हूं, मैं चिर वसंत हूं…
इंद्रधनुषी स्वप्नलोक है मेरा,
सप्तरंग और सुरो की ताल।
महसूस नहीं कर सका है उसने,
तेज गति मन किया बेहाल।
गूंज रही कोयल की कूकें,
मन में फूटे सौ गुब्बार।
जिह्वा से जो करे सुर स्पंदन ,
हंसवाहिनी करे उसका उद्धार ।
मैं वसंत हूं, मैं चिर वसंत हूं…
पीत वस्त्र में धरा सुशोभित,
ओढ़े चादर सरसों का।
नीला नभ सा अलसी पुष्प है,
किंशुक पुष्प मनभावन सा ।
आम्र मंज़र पर टूट पड़े भौंरे,
गुन-गुन गीत सुनाती हैं।
तृण-तृण हरित तरु पल्लवित,
गीत प्रणय के गाती हैं ।
मैं ही तो ऋतुराज वसंत हूँ।
मैं वसंत हूं, मैं चिर वसंत हूं…
यन्त्रवत हो जब मानव भू पर,
जड़वत तब, मैं वसंत बहार ।
अन्हरे को मैं दिख जाता हूं,
नेत्रवान मुझे दिख पाते नहीं।
बहरे मुझको श्रवण कर सकते,
कर्णवान मुझे सुन पाते नहीं।
गूँगा मुझको छूकर सहलाता,
वाचक मुझे गुनगुनाते नहीं।
कारण सुनलो इन बातों का,
चखने को मीठा एहसास।
अंतर्मन की चक्षु चाहिए,
स्वागत में हो, मन भी तैयार।
मैं वसंत हूं, मैं चिर वसंत हूं…
श्वेत भोर से श्याम तिमिर तक,
पक्षी कलरव करते हैं ।
मचल-मचल कर नदियां बहती,
कल – कल ध्वनि में गाती है।
पर जन भावनाएं कहाँ है सम्प्रेषित ?
लालच सुख की है, अपरिमित वेदना।
मेरा मन भी कितना व्यथित हैं,
सुन लो वसंत की अंतर्वेदना।
मैं वसंत हूं, मैं चिर वसंत हूं…
मौलिक एवं स्वरचित
© मनोज कुमार कर्ण ।
कटिहार ( बिहार )