वर्षा-वर्णन
नदी नदी उमड़ पड़ी, घुमड़ पड़ी घटा-घटा।
जोर-शोर हो रहा, चमक-दमक रही छटा।
घोर-घाम-ताप-थाम, शाम फिर से घिर चला।
काली रात गोद में, मुदित मन तिमिर चला।
रात ने जो बात की, जलद ने बरसात की।
बिजलियाँ बताती हैं, कथा कोई घात की।
तीव्र-तीव्र श्वांस ले, उड़ रहें है घास से।
छिन्न-भिन्न भटक रहे, घन कोई उदास से।
आँख रक्त-लाल-लाल, बीच-बीच में कराल।
कालिका सी दौड़ती, ज्यों लिए कर कपाल।
चारों ओर की धरा, स्वेद से भरा-डरा।
खेद-खिन्न-होके-द्रुम, थर-थरा-कुसुम झरा।
बूँद-बूँद इधर बरस, ताल भरत होत हरष।
किन्तु डरत जात सिहर, सोच-टपक-तड़ित-परस।
सेतु सारे डूब रहे, ज्यों पाप के घड़े भरे।
पार कर सकेगा कौन , वृहद पुण्य-नाव रे।
गॉंव की गली चली, वृष्टि धारा मनचली।
हाट-बाट-घाट को भी, पाट-पट किया मली।
हार-हार प्यार देत, विजय-हार डार देत।
कुसम-कली गिरा-गिरा, वृक्ष फिर पुकार देत।
नीड़ पर निवास कर, रहे थे जो भी पंछीवर।
खोह-खोजे फिर रहे , इन्द्रवज्र दैत्य डर।
भटक रहे इधर उधर, उड़ रहे ये पंखधर।
रहन-सहन न हो सके, पवन का उठा भंवर।
टूट से पड़े हैं अब, बादलों की भीड़ सब।
घोर-रात होत-जात, दिखे न ओर-छोर तब।