*वर्ण का महाजाल और संतुष्टि*
**ये सपने नहीं हकीकत है,
चुकती जिसमें कीमत है,
ख्वाब नहीं ..
..जो टूट जाए,
आंखें ..खुलते ही,
चिपक जाते है जो जन्म लेते ही,
ऐसी-वैसी नहीं व्यवस्था,
जो बंटी हो वर्गो में,
जकड़ी हुई जो वर्ण-व्यवस्था से,
है बड़ी विकराल समस्या,
फंसा है जाल में…
जाल में ही मर जाएगा,
पर चक्रव्यूह न तोड़ पाएगा..।
आखिर
शिक्षित बनो !
संगठित रहो !
संघर्ष करो !
सूत्र ही सम्मान बचाऐगा,
तब जाकर कोई ,
जीवन को धन्य कह पाएगा !
जीव जीवन को गर..धन्य न कहे ,
तब तक कौन कहे ..
डॉ महेन्द्र सिंह खालेटिया,
कोई मिथ्या से मुक्त हो पाया है,