वक्त
घड़ी की घूमती सुइयां
हैं सिर्फ आभास…
सूरज का आना
और छुप जाना
रात की गोद में….
है कहां ये वक्त !
ये क्रम तो जारी
सृष्टि के उदगम से…
न रूप घटा, न बल
मन्द भी तो ये पड़ा नहीं..
एक मोड़ सा ये तो
अचानक मिल जाता
चलते चलते…….
कभी अपना बनकर
सहलाता गुदगुदाता
मुस्कुराहटों के देता
अनंत उपहार…
और कभी गुजर जाता
गैर सा आंखें फेर…
दे जाता एक
अंतहीन सड़क…
गुजरती अनगिनत
मंदिरों,मजारों, मन्नतों
से होकर…
लेकिन मिलता नहीं
उसका छोर
तीन लोक का स्वामी
तब बन जाता
ये वक्त……