वक्त को जिसने न समझा (नवगीत)
नवगीत_13
वक़्त को
जिसने न समझा
वक़्त पीछे पड़ गया फिर ।
वक़्त ने
उसको लताड़ा
और आगे बढ़ गया फिर ।
उम्र की
राहों पे दौड़ी
घट रही नित शेष सी है
मौत रूपी
मंजिलों की
जिंदगी इक रेस सी है
देह नश्वर है
इसे तो
हारना सबको पड़ेगा
जीत उसको
ही मिली जो
वक्त से ही लड़ गया फिर ।
वक्त का
रुख़ देख जिसने
जिंदगी का दाँव खेला
कारवाँ
उसको मिला है
चल पड़ा था जो अकेला
कर दिया
सब त्याग उसने
लोभ की नव चेष्टाएँ
और सुख की
चौखटों पर
शांति के प्रति अड़ गया फिर ।
हौसलों के
पंख से जो
उड़ रहा छूकर अँधेरे
पार करने हैं
उसे भी
दर्द के बादल घनेरे
किंतु उसने
वक्त की
रफ़्तार अच्छे से समझ ली
दर्द के उन
पर्वतों पर
मुस्कुराता चढ़ गया फिर ।
✍राम केश मिश्र