वक्त और किनारा
वक़्त के किनारे से लम्हों को उठा रहा था
चुन रहा था लम्हों को जब कोई बेहद याद आ रहा था
याद करते करते उनको आँखे छलक गयी
मोती बन कर गिरे जो आँसु उसमें इक सूरत झलक गयी
लम्हों को थामे हाथ में जब उन्हें जी रहा था
दर्द बह रहा था आँखो से और आँसुओ को पी रहा था
याद आ गया था एक ऐसा लम्हा हसीन
दिलनशीन थी ज़ेहन में और चेहरे पे मुस्कान महीन
चल पड़ा मैं उन लम्हों को समेटें
यादों की गठरी बना कर, तिजोरी में रखूँगा दिल की
कोई तोड़ ना पायें ऐसा ताला लगा कर
अब छू कर निकल जाते है अहसास बेशुमार
ना कोई दर्द होता है ना ही आँसु बहते है बेकार.।।