वक़्त की आँधियाँ
धूप सी बरस रही थी, साँझ ने सुला दिया,
आँसुओं को गीली सी, मुस्कान ने रुला दिया।
वक़्त की जब चलीं, आंधियाँ उड़ा सब चलीं,
सख्त सी दीवार को, फुहार सा उड़ा दिया।
रोटियों के हाथों में, जब गर्दनें जकड़ी गईं,
सोते हुए पहाड़ के, पैरों को भी चला दिया।
जुनून था और जोश था, कुछ भी नहीं पर होश था,
सुकून का पलंग मिला, बेख़बर ख़ुद को सुला दिया।
पर कतरने से पहले, खूब ऊँचा उड़ लिया,
बुलंद थी उड़ान वो, किसने नीचे ला दिया।
खुशबुओं के वास्ते, पहरे बड़े ही सख्त थे,
जरा सी खिड़की खुली, जहान में उड़ा दिया।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”