वक़्त और हमारा वर्तमान
वक़्त और हमारा वर्तमान
(छन्दमुक्त काव्य)
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वक़्त के आगे ,
कितने बेबस हैं हम सब ।
कब पलट जाए ,
किसी को पता नहीं ।
कश्ती डुबाके कब निकल जाए ,
कभी पता नहीं ।
आगे बढ़ना है हमें ,
चलना है हमें ,
पर इसने तो दीवारें खड़ी की है।
एक बीते समय की दीवार ,
और दूसरी ,
आने वाले समय की दीवार ।
दोनों के बीच में ,
वर्तमान खड़ा है बेबस होकर ,
इन चाहरदीवारी के बीच का निर्माणकार्य लेकर ।
इसी चाहरदीवारी के अंदर ,
हमें इतनी ऊँची ,
बहुमंजिली इमारत खड़ी करनी है कि ,
जिस पर चढ़ कर,
भूत और भविष्य की दीवारें ,
कभी बेड़ियों सा न दिखे ।
दिखे तो बस ,
व्योम का वो क्षितिज ,
जहाँ भूत और भविष्य का मिलन हो ,
वक़्त भी थम सा जाए ।
और वर्तमान ,
वामनावतार के तीन पग जैसा ,
चाहरदीवारी की ऊचाईयों से परे जाकर ,
तीनों लोक के विभिन्न आयामों को नापता हुआ ,
शत्रु को भयभीत करदेने वाला हो।
और फिर वक़्त ही बेबस हो जाए ,
इन छोटे से वर्तमान के आगे…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ३० /०८/२०२२
भाद्रपद, शुक्ल पक्ष ,तृतीया ,मंगलवार ।
विक्रम संवत २०७९
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