लौट आई जिंदगी बेटी बनकर!
शीर्षक – लौट आई जिंदगी बेटी बनकर !
विधा – कविता
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर राज.
पिन 332027
मो. 9001321438
लौट आई जिंदगी बेटी बनकर
जब सब कुछ बह गया
जल-प्लावन में सालों पहले
उजड़ गयी थी कोमल लहरें
ठहर-ठहर सिहर जाता
काँप जाता था मन
किसी अंधेरी गुहा में
जब छाया पड़ती
काली छाया उभकर
कर देती विकृत चेहरा ।
कँपकँपी छूट जाती साँसों में
अटक जाती वाणी जब कंठ में
भय खाती आत्मा भटक जाती
काला गहन साया
लगा रहता पीछे मेरे
तब…….!
लौट आई जिंदगी बेटी बनकर
विचारों में दबाकर जब
अपना आत्म स्वरूप
निकल जाता चौराहें पर
जीवन का सत्य भूलकर
तब दबे पाँव पीछा करते
अतीत के साये
जब ओढ़ लेता मुस्कान
और कर लेता समझौता
तब आत्मा विद्रोह करती
और भय मुक्त होने की
हर संभावना को अपनाता
उस समय जीवन डूबता था
मौत की क्षितिज में
किंतु…….
मैं खुश हो सका
लौट आई जिंदगी बेटी बनकर।
मौत के चौराहे से नापता
साँसों की दूरी जीवन से
तब दूरी मापक यंत्र की बजाय
हाथ में थर्मामीटर थाम कर
मैं नापता था जीवन को
तब ताप चढ़ता हुड़दंग का
और कमजोर हो जाता
टूट कर बिखर जाता था
तब ओढ़ना पड़ता था शांति
मुस्कान में दबा
जिससे सवाल ही न उठे
पर मोटी मुस्कान के आगे
व्यर्थ रहा था प्रयास
क्योंकि…….!
लौट आई जिंदगी बेटी बनकर!