“लोहे की सड़सी”
“लोहे की सड़सी”
जय हो झिनकू भैया की। भौजी की अँगुली चाय की खौलती तपेली से सट गई, तो ज़ोर से झनझना गई भौजी, झिनकू भैया के बासी चाय पर। चार दिन से कह रहीं हूँ कि सड़सी टूट गई है, बनवा लाओ या नई बाजार से खरीद लाओ, पर सुनते ही नहीं। आखिर बिना सड़सी के तपेली कैसे उतरेगी, लो अब खुद ही चाय और रोटी बनाओ। फफोले सहलाते हुए भौजी दरवाजे पर आकर बिलबिलाने लगी। भैया की आँखों से प्यार का दरिया छलक गया और पहुँच गए बाजार में।
भाई एक सड़सी दे देना, इतना कहना था कि टेबल पर कई सड़सियाँ खनकने लगी, स्टील, पीतल इत्यादि की जिसमे से एक स्टील की सड़सी उठाते हुए झिनकू भैया ने पूछा, इसका क्या दाम है। दुकानदार ने अस्सी रुपए सुनाया तो झल्ला गए झिनकू भैया और बोले ,अरे भाई लोहे वाली दिखाओ न। हाँ हाँ यही चाहिए, कितना दूँ?पचास दे दीजिए। कुछ कम करो भाई चलिए चालीस दीजिए।
सड़सी लेकर झिनकू भैया निकले ही थे कि लुहार की दूकान नजर आ गई और उन्होंने उसके दूकान पर रखी हुई सड़सी उठाकर पूछ लिया, कितने की है। तीस रुपये दे दीजिए बाबू जी, कुछ कम करो, अच्छा पच्चीस दे दीजिए। ठीक है अभी वापस आते समय लूँगा। लुहार को भरोषा देकर झिनकू भैया पुनः उस दूकान पर पहुँच गए, जहां से पहली वाली सड़सी लिए थे, उसको मनगढ़ंत कहानी सुना दिए कि मेरे भाई ने एक सड़सी खरीद लिया है इसे वापस ले लो। दुकानदार ने चालीस रुपये लौटाकर सड़सी वापस लेकर उसकी जगह पर रख दिया और धन्यवाद कहते हुए झिनकू भैया, उस लोहार के वहाँ से सड़सी लेकर घर आ गए पर भौजी की जली हुई उँगली के लिए कोई दवा और मलहम की याद न आई। रास्ते भर कोसते रहे दुकानदार को, लूट मची है, जो जिसके मर्जी में आता है भाव बोल देता है। कहाँ की जी.एस. टी. और कहाँ की व्यवस्था। अंधेर मची है, क्या करेगी सरकार, ईमान को किस नियम कानून के पल्ले से बाँधेगी। वगैरह वगैरह भड़ास निकालते रहे और अपने चौराहे पर उतरे तो उनकी महँगाई खत्म हो गई, एक बीड़ा बनारसी पान दबाए हुए सड़सी भौजी के सामने पटक दिए, मानों नव लखा हार निछावर कर रहें है। जिसपर भौजी ने इतना ही कहा, बहुत दर्द हो रहा है कोई मलहम नहीं लाए क्या?, जिसका जबाब नहीं था झिनकू भैया के पास जैसे सरकार के पास कोई जबाब नहीं होता है, और जनता कराहती रह जाती है।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी