लोकतंत्र में मुर्दे
चुनाव आते ही मुर्दे जीवित हो जाते हैं,
वह लहलहाने लगते हैं
नए-नए “वादों” की बहती बयार से
यह वही मुर्दे हैं जो
पिछले चुनाव के बाद-
धीरे-धीरे मर गए थे
क्योंकि-
“वादे-एतबार” मुकर गए थे
बेज़ान हो आवाज़ भी नहीं उठा पाए थे
वादाखि़लाफ़ी के विरुद्ध
और अन्ततः मुर्दे हो गए थे।
चुनाव आते ही “वादों” की बयार
फिर से बहने लगती है
और मुर्दे-
फिर से जीवित हो जाते हैं
लोकतंत्र का “पर्व” मनाने के लिए
वस्तुतः वह मुर्दे ही होते हैं
बस, “पर्व” मनते देखते हैं
उन आँखों से, जो पथरा गई होती हैं,
सच्चाई नहीं देख पातीं,
उन्हें बताया जाता है, गिनाया जाता है
घोषणा-पत्रों में किए गए अनगिनत लुभावने वादे
जो पूरे किए जाएंगे “वोट” के बदले
अगले चुनाव के आने तक
यह आपसी लेन-देन का व्यापार है
चलता ही रहता है,
मुर्दे इसी आश में जीवित हो जाते हैं
उन्हें बताया जाता है, गिनाया भी जाता है-
देखो, हम सपनों के सौदागर हैं
हम तुम्हारे लिए सपने देखते हैं,
और पूरा भी करेंगे,
देखो-
मिलने वाला है बहुत कुछ निःशुल्क
अब “रोटी” के लाले नहीं पड़ेंगे
आकण्ठ अन्न ही अन्न होगा
चतुर्दिक कपड़े ही कपड़े होंगे, रंग-बिरंगे
रहने का ठौर भी मिलेगा
कोई आँख नहीं दिखा पाएगा, यह भी वादा है
हरियाली होगी- खेतों में,
किसान नहीं करेंगे अब “आत्महत्या”
उनके कर्जे हमारे होंगे
हम ठोस कदम उठाएंगे,
चहुओर कारखाने भी लगाएंगे।
भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाएंगे,
अब नहीं होंगे “घोटाले”
ऐसा माहौल बनाएंगे
परदेस में पड़े धन वापस लाएंगे
सरकारी खजाने फिर से खिल जाएंगे
सबका अपना बटुआ होगा
हम “पानी” देंगे, प्यास बुझेगी
“आक्सीजन” देंगे, सांस चलेगी
हम वादा करते है, “मुर्दे” नहीं होने देंगे
देश में चिकित्सक भर देंगे,
चिकित्सालयों की भरमार होगी
न कोई बिटिया “शिकार” होगी
सबको किया जाएगा “शिक्षित”
सब होंगे देश प्रेम से भरपूर “दीक्षित” ।
और अन्ततः चुनावी घोषणा-पत्र के वादों से अभिभूत
जीवित हो चुके मुर्दे
सोल्लास लोकतंत्र की “रश्म” निभाते हैं
ईवीएम का बटन मतार्थी के पक्ष में दबाते हैं
और फिर हो जाते हैं “मुर्दा”
पथराई आँखों में “वादों” की आश समेटे
आगामी चुनाव तक के लिए ।
– सूर्यनारायण पाण्डेय