लेख
2012 की वो सर्द सुबह आज भी मुझे याद हैं।
उस सुबह मैं दिल्ली में ही थी जब टीबी खोलते ही जो पहली खबर सामने आई वो ” निर्भया” रेप केस की थी।
उसको 8 साल हो गए कल यानी 20 तारीख को उनमें से चार को तमाम गतिरोध के बावजूद फांसी होने वाली है।
दिल को सुकून देने के लिए ठीक तो है, मगर क्या ही किया जा सकता है। जब देश में हर 15 मिनट पर एक लड़की का बलात्कार होता हो जिसकी रिपोर्ट लिखी जाती हो और ऐसे कितने ही छूट जाते होंगे शर्म की दीवार की ओट में या कोन पड़े पुलिस और अदालत के चक्कर में तो सोचिए… आठ साल में अगर किसी एक बलात्कार पीड़िता को थोड़ा न्याय मिल भी जाए तो उस से कितना और क्या बदल जाएगा।
औरतों की हक और बराबरी की बात करने वाले लोग भी जब समय आता है तो बगलें झांकने लगते हैं।
हैदराबाद केस में जो कुछ हुआ उसका समर्थन मैं नहीं करती। निर्भया केस में बिलंब के बावजूद दोषियों को सजा मिल रही है। अच्छी बात है, मगर क्या उन्नाव रेप केस में या ऐसे ही जो ओहदेदारों के उपर बलात्कार का आरोप है। उन आरोपियों को भी फांसी के फंदे तक नहीं घसीटना चाहिए। या ये सजा देने का जो स्वांग रचा जा रहा है सिर्फ निचले तबके के लोगों तक ही सीमित रहने वाला हैं।
मुझे इन में से किसी भी हरामजादे पे कोई दया नहीं आ रही या मैं ये कतई नहीं चाहती कि इन्हें सजा न हो।
सजा हो मगर बिना उनके ओहदे और जेब के भारीपन को देखे।
पागल जानवर जब घर में घुस कर आपके बच्चों को खाने लगे तो ये नहीं देखना चाहिए वो किस कुर्सी पे बैठा था या उसके कंधे पे किस किस का हाथ था… बस इतना ही… जय हो
~ सिद्धार्थ