लेखन मंदराएँ
क्या लिखूँ मैं ऐसा ?
दिल को मेरे तस्सली आए
मसला ये नहीं,
शब्द नहीं मेरे पास,
ना मस्ला विषयों का है ,
मसला है कि पन्ने जहां के खत्म न हो जाए।
क्या बताएगा कोई मुझे,
क्या लिखूँ मैं ऐसा ??
के दिल को मेरे तस्सली आए।
जितना लिखती हूँ इश्क़ के बारे,
इश्क़ उतना ही बढ़ता जाए
अगर लिखने बैठी ग़म के बारे,
तो ग़म के बादल सारा दिन सिर पर मंडराए।
लेखन में खो चुकी हूँ मैं इस कदर,
के अब खुदा सी यह कला मुझे नज़र आए
है मानना मेरा यह,
यह कला सिर्फ तुम्हारी पहचान नहीं,
यह एक राह है जो तुम्हें सच्चे रब से मिलाए।
अब तो बिन कलम यारा साँस भी मुझे ना आए,
मन और मस्तिष्क दोनों जुड़े हैं अब कलम के संग,
बिन इसके जी मेरा ना कहीं लग पाए,
लिखूँ मैं चाहे लाफ़ाज़ हज़ार ,
या लिखूँ कोई उम्दा अशार,
अगर नहीं रास मस्तिष्क को मेरे कोई विचार,
तो करलूँ चाहे कोशिशें हज़ार,
मेरी कलम उसके पक्ष में कुछ लिख ना पाए
यारों, बिन कलम साँस भी मुझे अब ना आए।।
❤️ सखी