लुप्त वनों और प्रकृति के लिए एक कविता
लुप्त वनों और प्रकृति के लिए एक कविता
काश कि ऎसी रेल गाड़ी होती
पेड़- पौधों के बीच, वो चलती
मैं खिड़की वाली, सीट पे होता
जब वो सीटी देकर, चल पड़ती।
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रेल गाड़ी जब, अपने सफर पर
धीरे-धीरे चल फिर आगे बढ़ती
कभी मैं छु पाता, कुछ पेड़ों को
कभी कोई पत्ती, मुझको छूती।
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पेड़ों की डाली पर, बैठी चिड़िया
मुझसे अपनी, मीठी बोली में कहती
देखो तुम्हारा, है ये सफर सुहाना
पर इसमें, कहीं तुम खो मत जाना.
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यहां मिलेगा, हर एक पग में तुम्हें
प्रकृति की सुंदरता का, अनमोल खजाना
पर इसे देख कर, लालच मत करना
कि लूटलो, इसे भी, जो है अबतक अनछुवा
इंसानों की लालची, नज़रों से बचा हुआ
धरती का ये मुक्त, अनमोल खजाना।
Ravindra K Kapoor
26th Nov. 2019