लिखो
तुम कविता लिखो
धू धू करती लाशों पर
लिखो
लिखो की किताबों के पन्नो से
उठता रहें धुआँ
जब जब खोला जाए
भारतीय इतिहास का
कोना
लिखो
लिखो की कैसे मंचो पर
चढ़ चढ़ कर
वो देता रहा भाषण
जब तक कि जिंदा
मुर्दों में न बदल गए
तब तक
वो जीत के सपनों में खोया
छिछोरे दो टके के
मदारियों की तरह
आंखे और हाथो को मटका कर
कराता रहा सबको
अपने आचार विचार का
प्रदर्शन
लिखो
लिखो की जब पट गयीं थीं लाशें,
मुर्दाघरों में, कब्रिस्तानों में
श्मशानों में
देश के तारनहार
डूबे हुए से
सत्ता के नशे में
गांजा फूंकते हुए
देते थे भाषण
लिखो
ये भी लिखो
की लाशें थी हर ओर
घर, आँगन, चौराहे
सड़कों पर
जल रही थीं
लाशें
टूट रहा था साम्प्रदायिकता का जाल
बिखर रहा था
ज़हनों में बसाया गया
धामिर्क उन्मांद का तूफान
छंटने लगे थे
दिलों में छाए गुबार
कोई, राम, न था
रहीम न था, जॉन न था
गुरप्रीत न था
थे बस इंसान
मगर शैतान सियासत का
कुर्सी पर बैठा
होता नाकाम
छीनता जाता था सबकी
आवाज़,
दबाता जाता हर इंकलाब
बचाने को अपनी कुर्सी
डालने को फिर से वो फूट
रचता रहता हरदम जाल
चाहे मरती हो जनता
वो कहता था सब है चंगा
लिखो
लिखो कविता
लिखो