लावनी
लावनी एक छन्द बद्ध गायकी है। इसका ज्यादातर प्रचलन उत्तर भारत के ग्रामीण समाज में था। इसके लिए अखाड़े जुड़ते थे। लावनी गाने वालों के मुख्यतया दो थोक हैं, जो तुर्रा और कलगी नाम से प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि इश्क लावनी का प्राण था। यह हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतीक थी। पीलीभीत के स्वामी नारायणानन्द सरस्वती ‘अख्तर’ ने ‘लावनी का इतिहास’ पुस्तक लिखी। ‘लावण्यलता’ उनका एक मात्र चर्चित लावनी-संग्रह है, जो सन् 1922 में प्रकाशित हुआ था।
लावनी गायकों के लगने वाले फड़ अब अतीत की बातें हैं। लावनी गायकों में एक मुखड़ा प्रस्तुत करता तो दूसरा उसे दोहराता, और फिर लावनी का विस्तार होते जाता। सन् 1914 में नारायणानन्द जी के देहान्त के बाद लावनी की रंगत ही डूब गई, और वह इतिहास के पन्नों में समा गई।
क्या कोई है, जो लावनी की मनमोहक गायकी को फिर से जिन्दा कर सके?
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
भारत भूषण सम्मान प्राप्त
हरफनमौला साहित्य लेखक।