लाडली की पुकार!
सिर पर जब तक पापा का साया,
बिन माँगे ही सब कुछ मैंने पाया।
वटवृक्ष सहारे कोमल लघु बेल,
आश्रिता बस मगन अपने खेल।
वे थे तो न चिंता, न कोई अवसाद,
पितु छत्र तले छिपे खिले आह्लाद।
पापा के कंधे चढ़ देखे कितने मेले
बाँहों में दुबक भूले सकल झमेले।
संघर्ष में पितृगण ढल जाते ढाल,
बचाव सतत करते स्वयं निढाल।
पुत्री हित काज चाहे गात न शक्ति
प्राण बसे तनया में ऐसी आसक्ति
वात्सल्य सबसे मिला जो अधिक,
पुत्री से अति स्नेह है अनुवांशिक।
सर्वविदित है पिता-सुता का नाता,
अनन्य अनुपम अप्रतिम कहलाता।
थर-थर थर्राता जहाँ सारा परिवार,
लुटाते मुझपर भरपूर प्यार-दुलार।
उनसे अपनी मनवा न पाए कोई,
मानी मेरी कही चाहे जागे-सोई।
कलम पकड़ाई जब से हाथ में,
धार लगाई बन खड्ग साथ में।
तोल-मोल बोलना सिखलाया,
मितव्यय वर्णों का भेद सुझाया।
एक आवाज़ मेरी का ये परिणाम
दौड़े आते छोड़ सभी काम-धाम
उपलब्धि मेरी तो बाँटते वे पतीसे
बतियाते सुख-दुख सखियों जैसे
समझाया समझना पीड़ित का दर्द,
झुलसें हों दिन चाहे रातें हों सर्द।
सहानुभूति से जुड़े मनुज के तत्त्व,
समानुभूत उनके तत्त्वों का सत्त्व।
अम्बर तक खुशियाँ तुमसे पापा
बचपन छिपा सहसा चढ़ा बुढ़ापा
हँसी छिनी मुख छाई गहन उदासी
क्या प्राण क्या तन हर रोम उपासी
तुमसे मेरा अस्तित्व अभिमानी,
फिर कैसे न पीड़ा मेरी पहचानी।
चले पड़े दूर सितारों की दुनिया,
कहाँ ढूँढे तलाशे तुम्हरी मुनिया।
कुछ बतला जाते जाने से पहले,
तैयार हो बेटी अब दु:ख सह ले।
छोड़ा मँझधार खींच ली पतवार,
क्यों नहीं सुनी मेरी मान मनुहार।
किस हाल निज बेटी को धकेला,
घिरे रिश्ते-नाते पर लगे अकेला।
अटूट बंधन का धागा पहचाना,
तोड़ा तुमने जो जग ताना-बाना।
छ: माह लगे युग सदियाँ बीतीं,
माँ भी तुम बिन हारी-सी जीतीं।
उजड़े जन जिनके तुम रहे सहारे,
क्योंकर तुमने एक क्षण में बिसारे।
याद करूँ तुम्हें पड़ते दिखलाई,
अब नहीं भाग्य में वह परछाई।
भागूँ पकड़ूँ हरदम यादों के साये,
आँख भरीं हाथ खाली रह जाए।
बहुत छका लिया तुमने बाबुल,
दरस दिखाओ यह धी आकुल।
थम जाए अविरल अश्रु की धारा,
पापा! सुनो, लाड़ली ने है पुकारा।
-डॉ॰ आरती ‘लोकेश’
-दुबई, यू.ए.ई.
-arti.goel@hotmail.com