मुल्क का नक्शा ऐसा नहीं होता
तअस्सुब का अगर पौधा यहां पनपा नहीं होता
हमारे मुल्क का नक्शा कभी ऐसा नहीं होता
तिरी इन ठोकरों से आज मैं टूटा नहीं होता
मिरे बेटे तुझे नाज़ों से’ गर पाला नहीं होता
लगी है भीड़ अपनों की कभी तन्हा नहीं होता
गमों के सख्त मौसम में को’ई अपना नहीं होता
कहीं खरगोश बनकर ख्वाब सोते ही न रह जाएं
सफर में देर तक आराम भी अच्छा नहीं होता
न हो कमज़ोर तो फौलाद की औक़ात ही क्या है
कि रहता बेगरज पत्थर, अगर शीशा नहीं होता
जमाने ने बनाया है मसीहा एक कातिल को
ज़ियादा दिन गुजरने पर को’ई चर्चा नहीं होता
अगर लड़ते झगड़ते ही नहीं हम बिल्लियों जैसे
यह मौक़ा बंदरों के हाथ में आया नहीं होता
अगर तोड़ा गया तो एक खंजर बन के उभरेगा
यही तो भूल है नाज़ुक कभी शीशा नहीं होता
जरा सी देर में मिल जाएगी शोहरत बुराई को
ज़माने में मगर अच्छाई का चर्चा नहीं होता