*लटें जज़्बात कीं*
प्यार के रिश्ते में गुथना
जैसे कि सीधी-सपाट लटों का
किसी चोटी में गुथना|
गुथने से पहले
न कोई उतार-चढाव, न कोई घुमाव
बस किसी धारा-सा निश्छल बहाव|
गुथने के बाद कितना
आ जाता है जीवन में बदलाव|
परस्पर जोड़ने को ‘अपने’
ज्यूँ फैलाए जाते हैं हाथ
त्यूँ बनता है चुटिया में इक-इक घुमाव|
दूर तक रिश्तों में सिमटे चलना
जैसे लटों का चोटी में बटना|
पर जब! छोड़ दे साथ एक लट बीच में ही,
दूजी लट क्या करे फिर अधूरी-सी|
हर रंग अधूरा, हर सिम्त उदासी
बिन सुमन हर शाख अधूरी-सी|
मुड़ना, जुड़ना, जुडके फिर चलना
कहाँ मुमकिन है फिर
गुथ की लटें भी कब
आसानी से गुथी जाती हैं फिर?
बालों को धो, सुलझा भी ले कोई,
निशानियाँ कहाँ धो पाती है ज़िंदगी..
कहाँ सुलझ पाती है इल्झन प्यार की,
कहाँ बन पाती है जगह
फिर किसी ओर के इसरार की?
समय की धूप ही इल्झन निकाल दे मगर
सूख के अकड़ जाती हैं लटें जज़्बात कीं|