#लघुकथा-
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■ कैसे बुझे ये आग…?
【प्रणय प्रभात】
नगर पंचायत के बरामदे में खड़ी रुकमणी गुस्से से बेहाल थी। वजह थी हर महीने मुफ़्त की रक़म पाने वाली महिलाओं की दीवार पर चिपकी सूची। जिसमें उसी के मोहल्ले की द्रोपदी का नाम उसे नज़र आ गया था। रुकमणी के रोष की वजह थी द्रोपदी की माली हालत की जानकारी।
उसे बख़ूबी पता था कि पति का तीन मंज़िला मकान द्रोपदी के ही नाम है। इसके अलावा ठेकेदार पति की कमाई भी अच्छी-खासी है। डेढ़ सौ बीघा पुश्तैनी ज़मीन से ट्रॉली में भर कर आने वाला अनाज और घर के नीचे वाले हिस्से में बने गोदाम का किराया अलग। सरकार की नीति से जली-भुनी रुकमणी का मन था आपत्ति उठा कर द्रोपदी का नाम कटवाने का।
दिक़्क़त बस इतनी सी थी कि द्रोपदी को भी उसके बारे में सारी जानकारी थी। उसके पास मौजूद लाखों के गहने-ज़ेवर से लेकर किराए पर उठाए गए तीन फ्लैटों और हाल ही में खरीदी गई आई-10 गाड़ी की। ऐसे में आपत्ति उठाने का मतलब होता अपना ख़ुद का नाम कटवाने का इंतज़ाम। जो सूची में द्रोपदी के नाम की तरह दर्ज़ था। ऐसे में द्रोपदी से पंगा लेने का मतलब था अपना पांव कुल्हाड़ी पर मारना।
यह सारा किया धरा मरी कलावती का था, जो दोनों घरों में झाडू-पोंछा करने आती थी और खबरी का रोल फ़ोकट में निभाती थी। वरना उसकी जानकारी द्रोपदी तक कैसे पहुंचती। गुस्से की आग में सुलगती रुकमणी यह भूल गई थी कि द्रोपदी की सारी जानकारी उसे भी इसी कलावती से मिली थी। वो भी एकदम मुफ़्त में।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)