अभिशाप (लघुकथा)
अभिशाप
सुबह-सुबह जब ज़मील ने अपने पड़ोस में रहने वाले हरचरन सिंह को देखकर उनसे दुआ-सलाम की तो हरचरन सिंह ने बड़े बुझे मन से उत्तर दिया।
ज़मीर ने पूछा, क्या हुआ भाईजान?तबियत नासाज़ है क्या,घर में सब ठीक-ठाक है?
हरचरन सिंह ने एक गहरी निःश्वास के साथ जवाब दिया, अभी तक तो ऊपर वाले के रहमोकरम से सब ठीक है।
कई दिनों तक ऐसे ही चलता रहा।हाज़ी ज़मील रोज़ाना अपने पड़ोसी और बचपन के दोस्त हरचरन सिंह को उदास और हैरान – परेशान देखते रहे।उन्होंने ये अंदाज़ा तो लगा लिया कि कुछ तो ऐसा है जो मेरे दोस्त और पड़ोसी को अंदर ही अंदर खाए जा रहा है।
एक दिन हाज़ी ज़मील शाम को हरचरन सिंह के घर गए और उनसे गले मिले।उनके घर में बड़ी देर तक बैठे रहे।
देश के अलग-अलग मुद्दों पर बेबाक बातें कीं,फिर उनसे पूछा- दोस्त, क्या बात है?जो तुम मुझे बता नहीं रहे हो। शर्तिया कुछ ऐसा है , जिसको लेकर तुम परेशान हो।
हरचरन सिंह ने कहा-क्या बताऊँ, बिटिया बड़ी हो रही है। उसी की चिंता खाए जा रही है।
हाज़ी साहब बोले- पा जी क्या बोल रहे हो, बच्ची तो अभी बारह-तेरह साल की ही है,अभी से क्या चिंता करना। उसकी शादी बड़ी धूमधाम से कराएँगे।
हरचरन सिंह बोले- शादी की चिंता नहीं है। चिंता इस बात की है कि कहीं उसका अपहरण न हो जाए। लोग उसे हरप्रीत कौर से फरजाना न बना दें ।सरकार भी तो हम लोगों की कोई परवाह नहीं करती।
हरचरन सिंह का दर्द सुनकर हाजी साहब बर्फ की तरह जम गए।उनकी आँखें नम हो गईं।फिर थोड़ी देर बाद कुछ सहज होकर बोले – बात तो तुम सही कह रहे हो दोस्त।तो अब इरादा क्या है, क्या सोचा है?
हरचरन सिंह सोच में पड़ गए कि हाजी साहब को अपने दिल की बात बताऊँ या न बताऊँ। लेकिन अपने बचपन के दोस्त और पड़ोसी के हाव – भाव देखकर उन्हें लगा कि उनका दोस्त दगा नहीं करेगा,मुसीबत में जरूर उसका साथ देगा।
हरचरन ने रुँधे गले कहा- मैं सोचता हूँ कि अपने परिवार को लेकर हिंदुस्तान चला जाऊँगा।वहाँ कम से कम बहू-बेटियों की इज्जत बची रहेगी।
हाजी साहब बोले- बिल्कुल सही सोचा है। अगर मेरी कोई जरूरत हो तो बिना हिचक जरूर बताना।इतना कहकर वे सिर झुकाए अपने बचपन के दोस्त के घर से वापस आ गए।
डाॅ बिपिन पाण्डेय