करवट लेती यादें
रोम रोम में
पड़ी सलवटें,
करवट लेती यादें।
जब तक आग
चिलम में बाकी,
हुक्का पीना होगा।
यादों का
परजीवी बनकर,
हमको जीना होगा।
उर से लिपटी
रोतीं रातें,
कैसे उन्हें भगा दें?
पाट नहीं सकते
हम दूरी,
बीच दिलों के आई।
नौ दिन चले
मगर पहुँचे हैं,
केवल कोस अढ़ाई।
अहम् सुलाने की खातिर,
लोरी पुनः सुना दें।
सूनी-सूनी
लगती है अब,
संबंधों की मंडी।
राजमार्ग पर
सभी दौड़ते,
छोड़-छाड़ पगडंडी।
आँगन में
भावों की आओ,
तुलसी एक लगा दें।।
डाॅ बिपिन पाण्डेय