रोटी
एक रोटी फूल-सी, फूली हुई जो आग।
आग में जिसको पकाने, से लगे कुछ दाग।
एक रोटी गोल, थाली से रही है झाँक।
चाँद-सी सूरत सलोनी, पर दिये तिल टाँक।
है निवाला रोटियाँ, सबको दिलाए याद।
भूख मिटती पेट की, जिसमें भरा है स्वाद।
आग लगती पेट में, बेचैन होती प्राण।
स्वर्ग से बढकर लगे, जब रोटियाँ दे त्राण।
रोटियाँ पकती तवे पर, हो रही तैयार।
आँच धीमी पर जले, होती तभी श्रृंगार।
रंग दुनिया का दिखाती, रोटियाँ सरताज।
ज़िन्दगी कितनी भयावह खोलती है राज़।
हाय! क्यों दो वक्त की, रोटी नहीं है हाथ?
बेच देती क्यों गरीबी, बोटियों के साथ?
पूछिए हमसे नहीं, कर लो खुदा से बात।
बात रोटी की करे, तो बोलती है रात।
आज फिर शामिल हुई हूँ, रोटियों का दौर।
रात दिन नींदें उड़ाई, रोटियाँ इक कौर।
रोटियाँ कोई रहा है फ़ेक कूड़ेदान।
भूख से कोई तड़प कर, दे रहा है जान।
पूछती है रोटियाँ, क्यों देश का यह हाल?
है किसानी ज़िन्दगी क्यों भूख से बेहाल?
पेट भर कर रोटियाँ, सबको मिले हर रोज़।
हो नहीं अब जिन्दगी में रोटियों की खोज। ।
लक्ष्मी सिंह