रोज खिड़की के पास
रोज खिड़की के पास
आँखें मुंद कर
महसूस किया करती हुँ तुम्हें
और
भोर की सुनहली किरणों से
वादा किया करती हूँँ
मैं नहीं रोऊँँगी
सावन की बौछारें हो
या शीत की लहरें
मैं नहीं रोऊँगी
भीड़ हो या तन्हाई
घर हो या रास्ता
मैं नहीं रोऊँगी
पर
साँझ की लालिमा
होते – होते
वादा भरभरा कर
आँखों से टुटने लगता है
रोज खिड़की के पास ।