रे मन इधर-उधर क्यों भटके…
रे मन, इधर-उधर क्यों भटके
रे मन, इधर-उधर क्यों भटके
खाए कदम-कदम पर झटके
छोड़ दे ये धन्धे खाली के
भजन कर ले प्रभु का डटके
कोई न देता साथ किसी का
जब नैया मझधार में अटके
शामिल न हो तू भेड़चाल में
छवि अपनी बना कुछ हटके
हुआ क्या हासिल अब तक
कितनी उम्र घटी कट-कटके
बिखर जाता सब किर्च-किर्च
आईना जब मन का चटके
करना है जो अभी तू कर ले
गया वक्त न आता पलट के
भू पर टिके न छू सके गगन
क्यूँ त्रिशंकु-सा अधर में लटके
पा जाएगा धाम परम मन
बस एक नाम राम का रटके
उस असीम की लघु ‘सीमा’ तू
रह हद में अपनी सिमट के
– डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)