रेल यात्रा संस्मरण
15. रेल यात्रा संस्मरण
रेल दिखाती दुनिया के सच देशी और विदेशी ।
थ्री टायर से फर्स्ट क्लास फिर उसके ऊपर ए सी ।।
चाय बेचते बच्चे देखे दस दस सालों वाले ।
नही जानते बचपन क्या है वे सब भोले भाले ।।
नेता के संग दस दस चलते बिना टिकट रखवाले ।
और गरीब की जेब काटते खाकी वर्दी वाले ।।
एक भिखारी अंधा देखा भीख माँगते ऐसा ।
चुरा रहा था दूजा उसके ही डिब्बे से पैसा ।।
हाथ पकड़ झटके से बोला क्या तुम समझे अंधा ।
तुम जैसों से ही बदनाम हुआ है अपना धंधा ।।
नेताओं सी कारगुजारी मत हमको दिखलाओ ।
अपने धंधे का उसूल है मेहनत करके खाओ ।।
देखी एक वृद्ध सी महिला लिए हुए एक छाता ।
अस्सी ऊपर उमर हो गई कोई नहीं बिठाता ।।
हंसी ठिठोली करते जाते युवा शहर के वासी ।
नही आत्मा उनकी जागी बुढ़िया खड़ी उदासी ।।
तभी एक सुंदर सी बाला इठलाती सी आयी ।
एक साथ कई कई आवाजें कानों से टकरायीं ।।
इधर आइये इधर बैठिये कई छोकरे बोले ।
भारतीय संस्कृति के झंडे सबने अपने खोले ।।
उस बाला ने जगह बनाकर बुढ़िया को बैठाला ।
चली गई आगे लड़कों का मुँह था देखनेवाला ।।
चलती गाड़ी मे भी भइया बहुत अजूबे दिखते । पास लिए फ्रीडम फाईटर का पर चालिस के दिखते ।।
छोटे छोटे बच्चे देखे सबकी प्यास बुझाते ।
पाँच रुपये मे मिनरल वाटर नलके से भर लाते ।।
एक पड़ोसी ऐसे मेरे झूठे बदन खुजाते ।
जहाॅ बैठ जायें जाकर सब सीट छोड़ हट जाते ।।
एक मित्र हैं ऐसे मेरे नहीं रेल से नाता ।
ग्रीन पास पर हरदम चलते जाने कैसे आता ।।
दूजे बोले आरक्षण मैं कभी नही करवाता ।
स्लीपर के पैसे देकर मैं टू ए सी मे जाता ।।
नही माँगता मै रसीद और बर्थ मुझे मिल जाती । रेल चल रही है घाटे मे जान तेरी क्यों जाती ।।
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प्रकाश चंद्र , लखनऊ
IRPS (Retd)