“रेलगाड़ी सी ज़िन्दगी”
रेलगाड़ी सी ज़िन्दगी, बस चलती ही जाती है,
कभी सीटी देती, कभी चुप सी, बढ़ती ही जाती है।
गर पहाड़ों को, तो दरिया भी, पार करते हुए,
निःशब्द अँधेरों को भी, चीरती चली जाती है।
कुछ पल का मेला सा दिखता है, भले जँक्शन पर,
उनमें से कोई, जानी पहचानी सी, लग जाती है।
इतने मेँ ज़ोर से, इक सीटी बज जाती है,
अगले ही पल, बिछड़ कर इक टीस सी दे जाती है।
यादों के झुरमुट से, हौले से इतराती हुई,
फिर कभी मिलने की, “आशा” जगा जाती है।
धड़क-धड़क करती, कुछ कुछ मचलती सी,
रेलगाड़ी सी ज़िन्दगी, बस चलती ही जाती है…!