रुखसती!
वैसे कोई दोस्ती तो नहीं मगर फिर भी गले तो लगा लेंगे
जब भी मौत आयेगी कुछ कहे बिना ही उसे अपना लेंगे!
दगा ही तो देती है हर इंसान को कहाँ वक्त पर आती है
वो जफ़ा करे बेशक हम मगर उसे बस अपनी वफ़ा देंगे!
जब जहाँ में और रूकने की कोई मोहलत नहीं दे सकती
क्यों पूछकर उसे पशेमाँ करें क्यों ना कहने की सज़ा देंगे!
अनगिनत मंज़िलें सर करनीं हैं कई काम नामुकम्मल पड़े
जानता हूँ दूसरों के जज़्बात उन्हें मंज़िलें ख़ुद ही दिखा देंगे!
उससे ख़ौफ़ खाकर बेवजह उसे अहमियत भला क्यों देना
हम भी उस घड़ी बेधड़क बेझिझक उससे हाथ मिला लेंगे!
वैसे न मौत का कोई ख़ौफ़ है न ज़िन्दगी से मोहब्बत रही
दुल्हन की मर्ज़ी क्या जब रुखसती होगी घूँघट बढ़ा लेंगे!
ना समझें उनकी मर्ज़ी मगर यही आख़िरी मंज़िल है उनकी
सुपुर्द -ए-ख़ाक होंगे जब अनदेखा कर अलविदा बुला देंगे!