रिश्तों का सच
रिश्तों में खटास आ गयी
खाद देते देते सुख रहा पेड़
दीमक खा रही
जैसे लोहे को जंग खा गयी
जिस परिवार ने कदमों पर खड़ा किया
उसी के कदमों के नीचे की जमीं
क्या जमीं ही खा गयी।
फूल पत्ती झड़ रहे सूख रही टहनी
आखिर हुआ क्या होगा
जितनी जुबाँ उतनी कहनी
खरपतवार सब आस पास बने रहे
रिश्तों की मुलायम घास को बकरी
खा गयी ।
रिश्तों में खटास आ गयी
जड़ जिसने पाला पोसा
खून पसीने से सींचा
तना जिसे कली रास आ गयी
हो रहा दूर जड़ से
फैली बाँहें उसकी
कली के ज्यादा पास आ गयी
रिश्तों में खटास आ गयी
जल में रहकर मगर से बैर
कहावत बहुत सुनी होगी
पर जब बात वजूद ही मिटने की हो
तो तने की यह मूर्खता ही होगी
फूल का वजूद टहनी से
टहनी का डाली से
डाली का तने से
तने का जड़ से
जड़ का बीज से
बीज का फूल से
चक्र चलता है
चक्र चलता रहे
और उसके पीछे की समझ भी
माना कि इन्सान के पास
हर मर्ज की दवा आ गयी
पर रिश्तों में विश्वास टूटने लगे
तो समझो कि गाँठ आ गयी
रिश्तों में खटास आ गयी ।।
भवानी सिंह “भूधर”