राहु और केतु
रत्न जड़ित सोने सी काया,
रूप वो ऐसा सबको भाया।
आसमान से उतरी थी वो,
सत्य नहीं वो कोरी माया।
सम्मोहन में बंधे थे सारे,
देव और दानव सभी निहारें।
रस यौवन में लिपटी थी वो,
लेकर आँखों में दो तारे।
अमृत कलश लिया फिर उसने,
देवों को आवाज लगाई।
एक पंक्ति में बैठो तुम सब,
उनको फिर ये बात बताई।
दानव दल कुछ कर न पाएं,
वंही खड़े आवाज लगाएं।
हमको भी तो देदो अमृत,
पीकर हम भी तो तर जाएँ।
वो सुंदरी चपल सहेली,
मधुर मुस्कान से फिर बोली।
तेरी बारी भी आएगी,
पहले ख़तम करूँ ये टोली।
देवों को निपटा कर फिर मै,
तेरे दल में भी आउंगी।
सबको धीरे धीरे ये रस,
कर अधरों से पिलाऊंगी।
दानव मस्ती में झूम रहे,
उनको कुछ न रहा था भान।
उनके साथ हुआ कुछ छल है,
इसका नहीं उन्हें था ज्ञान।
एक दानव ने भांप लिया था,
फिर चुपके ये काम किया।
भेष बदल जा बैठा देवों संग,
उसने भी अमृत पान किया।
दानव था वो भले ही शातिर,
उसका कलेजा गया था कांप।
सूर्य चंद्र की तीखी नजरों ने,
उसका छल जब लिया था भांप।
उसका खेल समझ अब आया,
मोहिनी थी अवाक् खड़ी।
अब वो क्या कर सकती थी,
हुई गलती थी बहुत बड़ी।
बिना देर के चक्र निकाला,
विष्णु रूप था हुआ विकट।
भाग रहा था दानव वो अब,
चक्र आ रहा था जो निकट।
सर को धड़ से अलग किया,
वो चक्र नहीं साधारण था।
काट कर के भी मार सका न,
वो अमृत उसका कारण था।
सर और धड़ दोनों थे जीवित,
अमृत ने अपना काम किया।
बाकी दानव जो कर न पाये,
वो राहु केतु ने नाम किया।
लेने को प्रतिशोध वो लपके,
सूर्य चंद्र को लगा ग्रहण।
हर एक साल ग्रसेगे तुमको,
उन दोनों ने किया ये प्रण।
राहु केतु की यही कहानी,
सदियों से हैं बतलाती।
मैंने भी इसको बतलाया,
अपने गीतों की भाँती।