राही
बालपन के सुनहरे पलों में मैंने स्वप्न देखा
जीवन की उन्मुक्त आकांक्षाओं में उल्लास देखा
जीवन में न निराशा कभी मुझको दबाने पाए
सब किस्मत का लेखा है यह उक्ति न मन में आए
मैं रहूँ कर्मयोगी जग है कर्मशीलता का आधार
जो रहा अडि़ग इस पथ पर स्वप्न हो साकार
रोष की ज्वाला कभी अन्तर्मन को न झकझोर पाए
मृदुल आचरण की सदैव मन डोर पाए
विपदा जो पथ पर राही अनेक आए
तपके स्वर्ण सम तु निखरे बाहर आए
आदित्य की भाँति प्रदीप्ति बिखराए
राही तु बनकर ही कुछ ऐसा निखराए