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30 May 2024 · 1 min read

रास्तों के पत्थर

कितनी दूर निकल आए हम चलते चलते
मंजिलें कुछ नई हैं ,रास्ते भी
एक दिन था जब देखा करते थे राहें तुम्हारी
आज तुम ही बन गए हो राहें मेरी
यही तो चाहा था सदा कि हम साथ रहें
हर कदम,हर रोड़ा, बन जाती है सुनहरी छांव
जब साथ होते हो तुम
रास्ते के पत्थरों पर ही साथ सांसें ले पाते हैं
जहां सुस्ता लेते हैं हम साथ
चलते समय तो निगाहें होती हैं बस रास्तों पर
मांगती हूं नई मंजिलें भी और रास्ते भी
लेकिन हर रास्ते पर कोई पत्थर जरूर हो
जहां हम तुम साथ बैठ सुस्ता सकें….

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