राष्ट्रवाद का रंग
राष्ट्रवाद का रंग
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राष्ट्रवाद का रंग फिजां मे,
जब से सपूतों ने घोला है।
आस्तीन के सांप की पोल खुली है,
हर बच्चा-बच्चा बोला है।
कीड़े-मकोड़े ऐसे बिलबिला रहे,
जैसे खौला जल,किसी ने डाला है ।
अनल ज्योति में जलने को आतुर ,
ग़ाफ़िल पतंगा भी तड़प रहा है ।
दगाबाज़ों का आगाज तो देखो ,
कांटो से खुशबू मिलती थी।
दामन में दाग दिखता नहीं जब तो ,
फूलों से ही,उसे चुभन होती है ।
जख्म गहरे थे, मुस्कुराते नित्यदिन ,
जख्म भर गए, मुँह खोला है ।
विष की पोटली खाली पड़ गई तो ,
लफ़्ज़ों से ही,जहर को घोला है ।
दनुज बड़ा षड़यंत्र रचाकर ,
देश के टुकड़े चाह रहा ।
पर मत भूलो एक कन्हैया ,
चक्र सुदर्शन लेकर है खड़ा ।
सबल द्विज कुछ संकीर्ण स्वार्थवश ,
दुर्जन बन कर, डोल रहा ?
भूल गये क्यों अटल प्रतिज्ञा ,
अब हिंद की सीमा बोल रहा।
पतझड़ का मौसम बेदर्द है ,
झड़ने ने दो पटुपर्ण ज़हरी ।
देखो वसंत में नई कोपलें आएगी,
राष्ट्रवाद की जड़ें है गहरी ।
राष्ट्रवाद से घुटन किसी को,
तो फिर लहू ही गंदा है ।
कैसा है इस देश का कानून ,
क्यों आज़ाद दरिन्दा है ?
तरुण जोश अब जाग उठा है ,
मौसम ने भी ली अंगराई है ।
हर लम्हा वतन के लिए ही जियुँ अब ,
सबने मिलकर ये कसमें खाई है।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १८ /०१ / २०२२
माघ, कृष्णपक्ष,प्रतिपदा
२०७८, विक्रम सम्वत,मंगलवार
मोबाइल न. – 8757227201