रावण न जला हां ज्ञान जला।
ज्ञान जला ,या घमंड जला।
मुझको कुछ न पता चला।
रावण के संग क्या स्वार्थ जला,
या फिर भीतर का दंभ पला,
किसके घमंड की ली आहुति,
कुछ समझ न आया, न कुछ पता चला।
जो जलता हर वर्ष दशहरे में,
क्या सच में रावण वो जला ?
या उसकी हुई वो छाया जिंदा ,
जो हर मन में फिर से पला?
अहंकार की वो अग्नि बड़ी,
हर दिल में जो सुलग पड़ी,
शब्दों में, कर्मों में, हर ओर,
मानवता की वो कली सड़ी।
जो जला वो सिर्फ था पुतला ,
आसुरी भाव का था बस छल्ला,
पर मन के भीतर जो बसा हुआ,
वो अंधकार अब तक न हिला।
कब तक यूँ रावण जलाओगे,
पर भीतर की बुराई बचाओगे?
जो सच में उसे मिटाना है,
तो खुद के अहम को जलाओगे।
रावण जला, या अहम जला,
या उसके संग वो ज्ञान जला ,
विश्व कोटि ऊंचे स्तर का ,
वो अदभुत विज्ञान जला।
आसुरी आड़ के संग में ,
तुमने उस पंडित को मारा।
जिसने अपनी ज्ञान शक्ति से,
जीत लिया था जग सारा ,
पर तुमने देखा बस दर्प ,
उस अद्भुत शक्तिको नही जाना ,
त्रिलोक विजय और ऐश्वर्य को ,
बिल्कुल भी नहीं पहचाना,
इस प्रश्न का उत्तर तो खोजो जो ,
तो मन निर्मल हो जाएगा,
तटस्थ भाव से रावण क्या था,
कौन सच का दीप जलाएगा।
हां इतना तो है पक्का लगता ,
कुछ न कुछ तो आज जला ,
ज्ञान जला या गर्व जला।
यह तो कुछ न पता चला।
कलम घिसाई