राम न बन पाये
(आधार छंद – वाद्विभक्ति)
!! श्रीं !!
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राम न बन पाये
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सिद्धांत न गीता के हमने पढ़ अपनाये ।
रामायण तो बाँची पर राम न बन पाये ।।१
०
सच को न कभी हमने स्वीकार किया सच है।
बस गीत रहे लिखते हमने न कभी गाये ।।२
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मंदिर न गये मस्जिद भटके बस इधर-उधर ।
सच जान नहीं पाये हमने बस झुँठलाये ।।३
०
ऐंठे-अकड़े केवल पाषाण बने मन में ।
हमको न दया भायी बस पाप हमें भाये ।।४
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सपने हमने देखे साकार किया उनको ।
मंजिल पर मंजिल चिन केवल घर बनवाये ।।५
०
जब अंत समय आया सच का अहसास हुआ ।
तब ज्ञान हुआ हमको मन में अति पछताये ।।६
०
सच ही शिव सुंदर है तू ज्योति जला सच की ।
उर में नव सूर्य उगे, किरणें नव बिखराये।।७
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा !
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