राम के प्रति
प्रिये! तुम्हारे प्यार से रौशन
हुआ हरेक पंथ मधुवन का
छोड़ न देना साथ कि मुझको
अंधेरों से डर लगता है!
झूठ कपट छल अहंकार से
त्रस्त रहा हर मोड़ जगत का
दर्द कराह आह से गुंजित
तोड़ न मन की अकुलाहट का
बिना तुम्हारे इस जीवन में
हर मारीच अमर लगता है
अंधेरों से डर लगता है!
पाहन-हिय जी उठे कि पाये
स्पर्श तुम्हारे पांँवों का
या कि रहे पाषाण बनाए
सेतु तुम्हारी राहों का
शरण तुम्हारी, भव सागर भी
इक ग्रामीण नहर लगता है
अंधेरों से डर लगता है!
कटे हुए पर इस जटायु के
तड़प रहे ; तुम आओगे?
दुराग्रही , सुग्रीवों के हक़
हड़प रहे ; तुम आओगे?
इस धरती पर तुम्हें चाहने-
में भी भारी कर लगता है
अंधेरों से डर लगता है!
दृष्टि तुम्हारे पास ज्ञान की
सिंधु तुम्हारी आँखों में
हृदय तुम्हारा भोर का तारा
इंदु तुम्हारी आँखों में
बिना तुम्हारे लौट के मुझको
मेरा ही हर शर लगता है
अंधेरों से डर लगता है!
मिले तुम्हारा संग मुझे फिर
शाप हरिक प्रिय वर लगता है
अंधेरों से डर लगता है!