रामायण आ रामचरितमानस में मतभिन्नता -स्वयंबर धनुष यज्ञ।
स्वयंबर वा धनुष्य यज्ञ के वृत्तांत मे महर्षि बाल्मीकि आ संत तुलसीदास मे मत भिन्नता हय!
आचार्य रामानंद मंडल।
महर्षि बाल्मीकि के अनुसार –
वीर्यशुल्केति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा।
भूतलादुत्थितां तां वर्धमानां ममात्मजाम्।।१५।।
वरयामासुरागत्य राजानो मुनिपुंगव ।
अर्थात – अपनी इस अयोनिजा कन्या के विषय में मैंने यह निश्चय किया कि जो अपने पराक्रम से इस धनुष को चढा देगा,उसी के साथ इसका ब्याह करूंगा।इस तरह इसे वीर्यशुल्का (पराक्रम शुल्क वाली) बनाकर अपने घर में रख छोड़ा है।मुनिश्रेष्ठ !भूतल से प्रकट होकर दिनों दिन बढनेवाली मेरी पुत्री सीता को कई राजाओं ने यहां आकर मांगा।
तेषां वरयतां कन्यां सर्वेषां पृथिवीक्षिताम्।।१६।
वीर्यशुल्केति भगवन् न ददामि सुतामहम्।
अर्थात -भगवन ! कन्या का वरण करनेवाले उन सभी राजाओं को मैंने बता दिया कि मेरी कन्या वीर्य शुक्ला हूं।(उचित पराक्रम प्रकट करने पर ही कोई पुरुष उसके साथ विवाह करने का अधिकारी हो सकता है)यही कारण है कि मैंने आजतक किसी को अपनी कन्या नहीं दी।
तेषां जिज्ञासमाननां शैवं धनूरूपाहृतम्।।१८।।
न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुषस्तोलनेअपि वा।
अर्थात – मैंने पराक्रम की जिज्ञासा करने वाले उन राजाओं के सामने यह शिवजी का धनुष रख दिया; परंतु वे लोग इसे उठाने या हिलाने में भी समर्थ न हो सके।
यद्यस्य धनुषो राम:कुर्यादारोपणं मुने।
सुतामयोनिजां सीतां दद्यां दशरथेरहम्।।२६।।
अर्थात -मुने! यदि श्रीराम इस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा दें तो मैं अपनी अयोनिजा कन्या सीता को इन दशरथ कुमार के हाथ में दे दूं।
तामादाय समंजुषामायसीं यत्र,तद्धनु:।
सुरोपं ते जनकमूचुर्नृपतिमन्त्रिण:।।५।।
अर्थात -लोहे की वह संदूक,जिसमें धनुष रखा गया था, लाकर उन मंत्रियों ने देवोपम राजा जनक से कहा –
इदं धनुर्वंरं राजन् पूजितं सर्वराजभि:।
मिथिलाधिप राजेन्द्र दर्शनीयं यदीच्छसि।।६।
अर्थात -राजन !मिथिलापते! राजेन्द्र! यह समस्त राजाओं द्वारा सम्मानित श्रेष्ठ धनुष है। यदि आप इन दोनों राजकुमारों को दिखाना चाहते हैं तो दिखाइये।
इदं धनुर्वंरं ब्रह्मय्जनकैरभिपूजितम्।
राजभिश्च महावीर्यैरशक्ते पूरितं तदा।।८।।
अर्थात -ब्रह्मण! यही वह श्रेष्ठ धनुष है, जिनका जनकवंशी नरेशों ने सदा ही पूजन किया है। तथा जो इसे उठाने में समर्थ न हो सके,उन महापराक्रमी नरेशो ने भी इसका पूर्वकाल मे सम्मान किया है।
महर्षेर्वचनाद् रामो यत्र तिष्ठति तद्वनु:।
मंजुषां तामपावृत्य दृष्ट्वा धनुरथाब्रवीत्।।१३।।
अर्थात -महर्षिकी आज्ञा से श्री राम ने जिसमें वह धनुष था उस संदूक को खोलकर उस धनुष को देखा और कहा –
इदं धनुर्वंरं दिव्यं संस्पृशामीह पाणिना।
यत्नवांश्च भविष्यामि तोलने पूरणेअपि वा।।१४।।
अर्थात -अच्छा अब मैं इस दिव्य एवं श्रेष्ठ धनुष में हाथ लगाता हूं। मैं इसे उठाने और चढ़ाने का भी प्रयत्न करुंगा।
बाढमित्यब्रवीद् राजा मुनिश्च समभाषत।
लीलया स धनुर्मध्यै जग्राह वचनान्मुने:।।१५।।
पश्यतां नृसहस्त्राणां बहूनां रघुनंदन:।
आरोपयत् स धर्मात्मा सलीलमिव तद्धनु;।।१६।।
तब राजा और मुनि ने एक स्वर से कहा -हां, ऐसा ही करो।मुनि की आज्ञा से रघुकुलनंदन धर्मात्मा श्री राम ने उस धनुष को बीच से पकड़कर लीला पूर्वक उठा लिया और खेल सा करते हुए उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी।उस समय के ई हजार मनुष्यो की दृष्टि उन पर लगी थी।
आरोपयित्वा मऔवईं च पूरयामास थद्धनउ:।
तद् बभन्च धनुर्मध्ये नरश्रेष्ठो महायशा:।।१७।।
प्रत्यंचा चढ़ाकर महायशस्वी नरश्रेष्ठो श्री राम ने ज्योंहि उह धनुष को कान तक खींचा त्योंहि वह बीच से ही टूट गया।
जनकानां खुले कीर्तिमाहरिष्यति मे सुता।
सीता भर्तारमासाद्य रामं दशरथात्मजम् ।।२२।।
मेरी पुत्री सीता दशरथकुमार श्री राम को पति रूप में प्राप्त करके जनकवंश की कीर्ति का विस्तार करेगी
मम सत्या प्रतिज्ञा सा वीर्यशुल्केति कौशिक।
सीता प्राणैर्बहुमता देया रामाय मे सुता।।२३।।
कुशिकनंदन! मैंने सीता को वीर्य शुल्का (पराक्रमरूपी शूल्क से ही प्राप्त होने वाली) बताकर जो प्रतिज्ञा की थी ,वह आज सत्य एवं सफल हो गयी। सीता मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर है। अपनी यह पुत्री श्री राम को समर्पित करूंगा।
रामचरित मानस के अनुसार –
सीय स्वयंबरु देखिअ जाइ।इसु काहि धौंस देइ बड़ाई।
लखन कहा जस भाजनु सोई।नाथ कृपा तव जापर होई।।१।।
चलकर सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिए। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं।लक्ष्मण जी ने कहा -हे गनाथ!जिस पर आपकी कृपा होगी,वही बड़ाई का पात्र होगा ( धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा।)।।
रंगभूमि आए दोउ भाई।असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई।।
चले सकल गृहिकाज बिसारी।बाल जुबान जरठ नर नारी।।
दोनों भाई रंगभूमि में आए हैं, ऐसी खबर जब सब नगरवासियों ने पायी,तब बालक,जवान, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी घर और काम काज को भुलाकर चल दिये।
लेत चढावत खैंचत गाढे।कहीं न लखा देख सबु ठाढ़ैं।।
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा,भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
लेते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा ( अर्थात ये तीनों काम इतनी फूर्ति से हुए कि धनुष को कब उठाया,कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा); सबने श्री राम जी को (धनुष खींचे) खड़े देखा
।उसी क्षण श्री राम ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर ध्वनि से (सब) लोक भर गये।।४।।
गावहिं छवि अवलोकि सहेली।सिय जयमाल राम उर मेली।।
इस छबि को देखकर सखियां गाने लगी।तब सीताजी ने श्री राम जी के गले में जयमाला पहना दी।।४।।
@रचनाकाराधीन।
रचनाकार -आचार्य रामानंद मंडल सामाजिक चिंतक सह साहित्यकार सीतामढ़ी।