रामपुर में थियोसॉफिकल सोसायटी के पर्याय श्री हरिओम अग्रवाल जी
श्रद्धाँजलि:श्री हरिओम अग्रवाल
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रामपुर में थियोसॉफिकल सोसायटी के पर्याय श्री हरिओम अग्रवाल जी
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थियोसॉफिकल सोसायटी के प्रति श्री हरिओम अग्रवाल जी की समर्पित निष्ठा अद्वितीय थी । एक तरह से अपना पूरा जीवन उन्होंने थियोसॉफिकल सोसायटी को ही अर्पित कर दिया था । पिछले 40 – 50 वर्षों से रामपुर लॉज में जो भी गतिविधियाँ हुईं तथा थियोस्फी की विचारधारा के प्रचार और प्रसार के लिए जो कार्यक्रम हुए ,उन सबका श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को दिया जा सकता है तो वह श्री हरिओम अग्रवाल जी ही हैं।
19 – 20 अप्रैल 2021 की अर्धरात्रि में काल ने हमें उनसे अलग कर दिया । ग्वालियर में अपने पुत्र के पास वह काफी समय से रह रहे थे । डायलिसिस पर थे ,लेकिन रामपुर में थियोसॉफिकल गतिविधियाँ सही प्रकार से चलें ,इसकी चिंता उन्हें अंत तक रहती थी । धर्मपथ-पत्रिका की कुछ प्रतियाँ डाक से जब मेरे पास आईं और मैंने हरिओम जी को पत्र लिखा कि इन पत्रिका की प्रतियों का क्या करना है ? तब उन्होंने ग्वालियर में बैठे-बैठे अपने एक रिश्तेदार को यह व्यवस्था करने के लिए निर्देशित कर दिया कि आप रवि प्रकाश जी से पत्रिकाएँ लेकर उन्हें अमुक – अमुक स्थानों पर अमुक व्यक्तियों को वितरित कर दें । तात्पर्य यह कि सोसाइटी की गतिविधियाँ सुचारु रुप से चलें ,इसके प्रति उनकी चिंता और चेतना अंत तक जाग्रत रही।
मेरे पास जब भी दुकान पर मिलने आते थे तो या तो पत्रिका की एक ताजा प्रति लेकर आते थे अथवा कोई पुस्तक पढ़ने के लिए दे जाते थे । अगली बार मैं उन्हें पुस्तक वापस कर देता था । मैंने अनेक बार उन पुस्तकों की समीक्षा लिखी तथा इसी क्रम में थियोसॉफि के बारे में मेरी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो गयीं। एक भारत समाज पूजा का पद्यानुवाद तथा व्याख्या की तथा दूसरी पुस्तक में कुछ पुस्तकों की समीक्षा तथा थियोसॉफि से संबंधित कुछ लेख। वास्तव में इन सब का श्रेय तो हरि ओम जी को ही जाता है । न वह पुस्तकें पढ़ने के लिए देते और न मैं उनमें रुचि ले पाता और कुछ लिख पाता । एक तरह से उनके सामीप्य से मेरे भीतर थियोसॉफि के प्रति खोजपूर्ण भावना का उदय हुआ और मैंने उस में गहरी दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया ।
हरिओम जी के निवास पर एनी बेसेंट जी की स्मृति से संबंधित जब सभा होती थी तब उसमें वह दीनानाथ दिनेश जी की “श्री हरि गीता” का एक अध्याय मुझसे ही पढ़वाते थे । उन्हें संभवतः मेरा पढ़ा हुआ अच्छा लगता होगा ।
जब शिखर अग्निहोत्री जी जो राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं ,हरिओम जी के निवास पर आए तब उनकी सभा की अध्यक्षता हरिओम जी ने कृपा पूर्वक मुझसे ही कराई । रामपुर में श्री उमा शंकर पांडेय जी तथा श्री शिव कुमार पांडेय जी के आयोजनों का श्रेय हरिओम अग्रवाल जी को ही जाता है । और भी न जाने कितने अवसरों पर मुझे उनके स्नेह का लाभ मिलता था ।
हरिओम अग्रवाल जी सरल हृदय के स्वामी थे। धीमा बोलते थे । चाल भी हल्की थी। स्वभाव से किसी का बुरा न चाहने वाले व्यक्तियों में उन की मिसाल दी जा सकती है । सबका अच्छा ही चाहना ,इस विचार को उन्होंने अपने जीवन में खूब अच्छी तरह से आत्मसात किया हुआ था । उनके व्यवहार से सात्विकता प्रकट होती थी । जिस प्रकार से हम संतों और ऋषि मुनियों की परिकल्पना कर सकते हैं ,वह सारे गुण उनमें विद्यमान थे।
थियोसॉफि के वह एक अच्छे अनुवादक थे । दसियों-बीसियों लेखों का उन्होंने अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया और वह अनुवाद थियोसॉफि की प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होता था । इससे पता चलता है कि वह अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही भाषाओं में पारंगत थे तथा इतना ही नहीं वह अपनी योग्यता का सही प्रकार से सदुपयोग करना भी जानते थे । इसीलिए तो अंग्रेजी में लिखे गए श्रेष्ठ महानुभावों के लेखों के हिंदी अनुवाद उनकी लेखनी का स्पर्श पाकर हिंदी भाषी हजारों – लाखों लोगों की आंखों के सामने से गुजर पाए । यह अपने आप में एक बहुत बड़ी सेवा थी,जो हरिओम जी ने लगातार की ।
थियोसॉफिकल सोसाइटी के अनेक सम्मेलनों में वह राष्ट्रीय स्तर पर भागीदारी करते रहते थे अर्थात भली प्रकार से सक्रिय थे । जब किसी सम्मेलन से लौट कर आते थे तब मुझे वहाँ के बारे में बताते थे और खुश होते थे । थिओसॉफी के सम्मेलनों में उन्हें विद्वानों की विविधता देखने में आती थी तथा यह उनकी प्रसन्नता का मुख्य कारण था । केवल रामपुर ही नहीं बल्कि आसपास के क्षेत्रों में भी थियोसॉफि के ऐसे विद्वान कम ही होंगे जो मैडम ब्लैवट्स्की, लेडबीटर साहब ,एनी बेसेंट तथा जे. कृष्णमूर्ति के विचारों से इतनी गहराई से जुड़े रहे होंगे, जितना श्री हरिओम अग्रवाल जी रहे थे। उनसे बात करने का अर्थ था कि हम थिओसॉफी की एक शताब्दी से ज्यादा पुरानी परंपरा को साक्षात अनुभव कर रहे हैं।
मुझसे उन्होंने एक बार थिओसॉफी की “इसोटेरिक सोसाइटी” का सदस्य बनने के लिए आग्रह किया था । उसका कुछ संक्षिप्त साहित्य भी उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए दिया था । उसमें कोई खास बात तो नहीं थी । केवल शराब छोड़ना और मांसाहार का परित्याग करना था । मेरे लिए इसमें छोड़ने वाली कोई बात ही नहीं थी क्योंकि मुझे इसमें कुछ छोड़ने के लिए था ही नहीं। मैं स्वयं भी उन महात्माओं से साक्षात परिचय का इच्छुक था ,जिनकी प्रेरणा से थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना मैडम ब्लैवट्स्की की द्वारा की गई । मैं कल्पना करता था उन महात्माओं की जो मैडम ब्लेवेट्स्की को युवावस्था के प्रभात में नवयुवक की भांति मिले थे और जिनकी युवावस्था तब भी वैसी की वैसी ही थी जब मैडम ब्लेवेटस्की बूढ़ी हो गई थीं। मुझे उन महात्माओं में बहुत दिलचस्पी होती थी। मैं ऋग्वेद के 300 वर्ष तक स्वस्थ जीवित रहने के मंत्र को उन महात्माओं के जीवन के साथ जोड़ने का प्रयत्न करता था । इसोटैरिक सोसाइटी में मेरा प्रवेश हो भी जाता लेकिन दिक्कत यह आ गई कि हरिओम जी ने कहा कि अगर एक बार आप इस में दाखिल हो गए तब आप इससे बाहर नहीं जा सकते। जबकि मेरा कहना यह था कि मैं बँध नहीं सकता । हो सकता है कि कुछ समय बाद मेरी रुचि अथवा परिस्थिति इसोटेरिक सोसाइटी की मीटिंग में जाने की न रहे ,तब मात्र नियम से बँधकर मैं किसी मीटिंग में जाऊं ,यह मुझे ठीक नहीं लगेगा । बस इसी प्रश्न पर मेरी उस अंतरंग गोष्ठी में हिस्सा लेने वाली बात टलती गई ।
मुझसे उनका स्नेह अद्वितीय था । मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री राम प्रकाश सर्राफ को वह प्रतिवर्ष एक जनवरी को एक शुभकामना- पत्र घर पर आकर दे जाते थे । उस पर कुछ अच्छे संदेश हरिओम जी के हाथ से लिखे हुए होते थे तथा एक चित्र रंगीन पेंसिल से भी बना हुआ होता था । यह शुभकामना- कार्ड बहुत आकर्षक हुआ करता था । बाद में दो-चार वर्ष यह औपचारिकता उन्होंने मेरे साथ भी निभाई लेकिन फिर यह संग पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रदान करने तथा सोसाइटी की गतिविधियों में भाग लेने के विस्तार तक चला गया । एक प्रकार से अब मैं उनकी विचारधारा तथा क्रियाकलापों का एक सक्रिय हिस्सा बन गया था ।
पिछले कुछ दशकों में सोसाइटी की कुछ बैठकें अलग-अलग स्थानों पर भी हुई ,लेकिन घूम- फिरकर सक्रियता का केंद्र हरिओम अग्रवाल जी और उनका निवास स्थान ही रहा । वह उत्साह पूर्वक अपने निवास पर कार्यक्रमों का आयोजन करते थे । अकेले होते हुए भी सब प्रकार से कुर्सियां बिछाने ,अतिथियों के आगमन की व्यवस्था करने तथा किस क्रम में किसको संबोधन के लिए आमंत्रित करना है ,इन सब पर उनकी निगाह लगी रहती थी। बाद में जलपान का अच्छा आयोजन भी वह रखते थे । कुल मिलाकर वह एक अच्छे आयोजनकर्ता थे। थियोसॉफिकल सोसायटी की मीटिंग की सूचनाएं भी कई बार वह बड़े मनोयोग से कलात्मक ढंग से रंगीन पेंसिलों का इस्तेमाल करते हुए बनाते थे। यह सब उनकी कलात्मक अभिरुचियों का परिचायक था।
मेरी थियोसॉफि से संबंधित एक अथवा शायद दोनों पुस्तकों का विमोचन उनके ही कर – कमलों द्वारा राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर शिशु निकेतन) में हुआ था । वैसे भी वह मुझ पर कृपालु थे और मेरे सभी साहित्यिक कार्यक्रमों में अपनी गौरवपूर्ण उपस्थिति प्रदान कर दिया करते थे। अतिथियों की प्रथम पंक्ति में उनका विराजमान होना किसी भी कार्यक्रम को चार चाँद लगाने के लिए काफी होता था। मेरा सौभाग्य रहा कि मैंने उनकी निकटता का सुख प्राप्त किया । उनसे सीखा तथा उनके द्वारा प्रदत्त साहित्य और विचारों तथा संस्मरण का एक बड़ा हिस्सा अपने जीवन में चिंतन और मनन के लिए सुरक्षित रख सका ।
उनकी याद हमेशा आती रहेगी। पारिवारिक कार्यक्रमों में भी वह मुझे बुलाते थे । उनका परिवार भी निसंदेह अत्यंत सहृदय तथा शुभ भावनाओं और विचारों का धनी है । उनकी पत्नी थियोसॉफिकल आयोजनों में घर पर सक्रिय सहभागिता निभाती थीं। दिवंगत श्री हरिओम अग्रवाल जी का परिवार शुभ विचारों तथा सात्विक जीवन शैली का वाहक था। ऐसे परिवार कम ही मिलते हैं। वह अपने पुत्र की प्रशंसा अनेक बार करते थे और सचमुच जैसा कि मैंने भी उनके पुत्र को पाया ,वह प्रशंसा के पात्र हैं। मेरी हार्दिक संवेदनाएँ श्री हरिओम अग्रवाल जी के परिवार के साथ हैं । दिवंगत आत्मा को मेरा शत-शत नमन
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रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451