*रामचरितमानस में गूढ़ अध्यात्म-तत्व*
रामचरितमानस में गूढ़ अध्यात्म-तत्व
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
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रामचरितमानस में अद्भुत गूढ़ अध्यात्म-तत्व वर्णित किए गए है । सारा महात्म्य इसी का है । यह तुलसीदास जी के प्रज्ञा चक्षुओं का कमाल है कि उन्होंने राम-कथा को विशुद्ध यथारूप हमारे समक्ष प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की । हजारों-लाखों वर्षों से राम कथा लिखी, पढ़ी, कही और गाई जा रही है; लेकिन तुलसीदास जी ने जो राम कथा लिखी वह साक्षात भगवान शंकर द्वारा रचित मानस-रामायण के हृदय से निकली हुई ज्ञान-गंगा थी। यह वह रामकथा है, जो रामचरितमानस में समानांतर रूप से भगवान शंकर द्वारा पार्वती जी को सुनाई जा रही है। इसी ‘मानस रामायण’ को तुलसीदास जी ने अपनी भाषा और काव्य के चमत्कार के साथ प्रस्तुत कर दिया ।
यह भी तुलसीदास जी के दिव्य और अलौकिक चक्षुओं की ही विशेषता कही जा सकती है कि उन्होंने काग भुशुंडि जी के दर्शन भी कर लिए अन्यथा हजारों-लाखों वर्षों से सुमेरु पर्वत के उत्तर दिशा में नील पर्वत पर एक वृक्ष के नीचे वह राम कथा सुना रहे हैं। पक्षी उसे सुन रहे हैं । सरोवर में तैरने वाले हंस उस रामकथा के श्रोता हैं । एक बार भगवान शंकर भी हंस का रूप धारण करके श्रोताओं में सर्वसाधारण की भांति बैठ जाते हैं और राम कथा सुनकर लौट आते हैं । किसी को कानों-कान खबर नहीं होती कि कागभुसुंडि जी की कथा में किसी दिन भगवान शंकर जैसे अति विशिष्ट श्रोता भी पधारे थे । लेकिन तुलसीदास जी उस घटना को पकड़ लेते हैं और रामकथा के श्रोता की कितनी अहंकारशून्यता की भावना होनी चाहिए, उसे प्रदर्शित करने से नहीं चूकते ।
रामचरितमानस एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो इस बात को स्थापित कर रहा है कि इस संसार में सत्य की स्थापना के लिए भगवान शरीर धारण करके अवतार लेते हैं। तुलसीदास जी लिखते हैं :-
जब जब होई धरम की हानि/ बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी/ तब-तब प्रभु धरि विविध शरीरा/हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा
(बालकांड चौपाई संख्या 120)
एक प्रकार से यह भगवद् गीता में श्री कृष्ण के कहे गए उच्च स्वर को एक बार फिर लोकमानस में प्रतिष्ठित करना था । भगवान राम कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं ,वह भगवान के अवतार हैं । तुलसी ने समूची रामचरितमानस में राम के रामत्व रूपी ईश्वरत्व को ही तो प्रदर्शित किया है ।
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राम का सर्वप्रथम अलौकिक तदुपरांत साधारण शिशु-रूप में जन्म
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राम का जन्म सर्वप्रथम तो अद्भुत रीति से ही हुआ । वह ईश्वर के अवतार रूप में ही प्रकट हुए । अलौकिक शरीर और अलौकिक आभा लिए हुए।इसीलिए तुलसीदास जी ने लिखा :-
भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी /हर्षित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी /लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आयुध भुजचारी
(बालकांड छंद संख्या 191)
जब भगवान कौशल्या के गर्भ से पुत्र के रूप में प्रकट हुए, तब तुलसीदास जी ने लिखा कि उनके चार भुजाएं थीं। और वह अस्त्र-शस्त्र लिए हुए थे। लेकिन अगले ही क्षण कौशल्या के इस प्रश्न को भगवान ने हल कर दिया कि जब मनुष्य के रूप में जन्म लेना है तो एक सामान्य मनुष्य की भांति ही शिशु रूप में जन्म लेना आवश्यक है। इसलिए तुलसीदास जी ने छंद के प्रवाह को आगे बढ़ाते हुए लिखा :-
माता पुनि बोली सो मति डोली/ तजहु तात यह रूपा/ कीजै शिशु लीला अति प्रिय शीला/ यह सुख परम अनूपा/ सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना/ होइ बालक सुरभूपा
शिशु के रूप में भगवान का जन्म के उपरांत सर्वसाधारण प्रक्रिया के अनुसार रूदन करना मनुष्य के रूप में ईश्वर के अवतार को स्वाभाविक प्रदान करता है।
भगवान मनुष्य के रूप में जन्म लेने के बाद साधारण बालकों की भांति किंतु असाधारणत्व लिए हुए दशरथ के आंगन में खेलते हैं। काग भुसुंडि जी पॉंच वर्ष की आयु होने तक उनके बाल रूप का दर्शन लाभ प्राप्त करते रहते हैं । तुलसीदास जी भगवान की बाल रूप की वंदना करते हैं । लिखते हैं :-
मंगल भवन अमंगल हारी/ द्रवहु सो दशरथ अजिर बिहारी
(बालकांड चौपाई संख्या 111)
यहां अजिर का अर्थ आंगन है ।इस तरह आंगन में विचरण करने वाले दशरथ पुत्र राम की वंदना की गई है तथा इस तरह मंगल को करने तथा मंगल को हरने वाले भगवान से कृपा मांगी गई है।
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स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
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रामचरितमानस के रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास ने अंतःकरण के सुख के लिए रामचरितमानस लिखी। उनके मन में किसी धन और न ही किसी पद की प्राप्ति की आकांक्षा थी। हृदय को निर्मल बनाने वाली रामकथा लिखने का इससे अच्छा उद्देश्य भला और कौन सा हो सकता है ! जो रचना स्वांत: सुखाय लिखी जाएगी, उसे लिखने वाला भी पवित्र हो जाता है और पढ़ने वाले का अंत:करण भी विशुद्ध रूप से निर्मलता को प्राप्त होता है।
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निराकार ईश्वर का प्रतिपादन
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रामचरितमानस के पृष्ठ ईश्वर के निराकार स्वरूप के समर्थन से भरे पड़े हैं। वह सर्वव्यापक और बिना कोई आकार लिए हुए होता है । उसे किसी देह में बॉंधा नहीं जा सकता । रामचरितमानस में लिखा है :-
बिनु पद चलई सुनई बिनु काना/ कर बिनु करम करइ विधि नाना/ आनन रहित सकल रस भोगी/ बिनु बानी वक्ता बड़ जोगी
(बालकांड चौपाई संख्या 117)
एक अन्य स्थान पर लिखा है:-
हरि व्यापक सर्वत्र समाना/ प्रेम तें प्रकट होहिं मैं जाना (बालकांड चौपाई संख्या 184)
इसी बात को एक अन्य स्थान पर इन शब्दों में लिखा है:-
रामहि केवल प्रेम पियारा
(अयोध्या कांड चौपाई संख्या 136)
दंडकारण्य में भगवान राम ने लक्ष्मण को गूढ़ आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया। उन्होंने लक्ष्मण को समझाया:-
मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया। गो गोचर जाँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ।।
(अरण्य कांड दोहा संख्या 14)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के शब्दों में मैं और मेरा, तू और तेरा यही माया है। जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है। गो गोचर अर्थात इंद्रियों के विषयों को और जहां तक मन जाता है, वह सब माया ही जानो।
अध्यात्म का यही सार है। अगस्त्य मुनि ने भी भगवान राम से अध्यात्म की बहुत गहरी बात कही :
यद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता । अनुभव गम्य भजहिं जेहिं संता।।
(अरण्यकांड दोहा संख्या 12)
सुमेरु पर्वत के शिखर पर वट वृक्ष की छाया में लोमश मुनि आसीन थे। मनुष्य- रूपधारी काग भुशुंडि जी ने लोमश मुनि से सगुण भक्ति-आराधना के बारे में जानकारी चाही। लोमश मुनि ने उन्हें निर्गुण-निराकार ब्रह्म का उपदेश दिया। उसके बारे में बताया :-
मन गोतीत अमल अविनाशी । निर्विकार निरवधि सुख राशी।। सो तें ताहि तोहि नहि भेदा। बारि बीचि इव गावहिं वेदा।।
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 110)
उपरोक्त चौपाई का अर्थ हनुमान प्रसाद पोद्दार जी इस प्रकार बताते हैं :- “वह मन और इंद्रियों से परे, निर्मल, अविनाशी, निर्विकार, सीमा रहित और सुख राशि है। वेद गाते हैं कि वही तू है। जल और जल की लहर की भांति उसमें और तुझ में कोई भेद नहीं है। ”
निर्गुण-निराकार ब्रह्म की यह व्याख्या व्यक्ति को ब्रह्ममय स्थिति में ले जाने के लिए ध्यान-मार्ग से प्रेरित करने वाली होती है।
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ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी ।।
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 116)
अर्थात जीव ईश्वर का अंश है अर्थात चेतन, मल-रहित और सहज ही सुख का भंडार है।
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🍃🍃 सोहम् का ज्ञान 🍃🍃
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सोहम् का ज्ञान उत्तरकांड के अंतिम प्रष्ठों में कागभुशुंडि जी महाराज और श्री गरुड़ जी के संवाद से प्राप्त होता है:-
सोहमस्मि इति वृत्ति अखंडा । दीपशिखा सोइ परम प्रचंडा ।। आतम अनुभव सुख सुप्रकाशा। तब भव मूल भेद भ्रम नाशा ।।
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 117)
अर्थात सोहम् अथवा वह परमात्मा में ही हूँ, इस प्रकार की अखंड वृत्ति दीपशिखा के समान जब प्रचंड होती है और आत्मा का अनुभव होने लगता है तब सुख का प्रकाश भीतर फैलता है तथा भेद मूलक वृत्ति जो कि आत्मा और परमात्मा के अलग-अलग मानने के कारण बनी हुई है; वह समाप्त हो जाती है। अध्यात्म का सर्वोपरि ज्ञान यही है कि जो वह है, वही मैं हूँ। इसी को तुलसीदास जी ने सोहमस्मि कहकर चौपाई में कागभुसुंडि जी के माध्यम से गरुड़ जी को प्रदान किया है।
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🍃🍃 सांसारिक प्रलोभनों की बाधा 🍃🍃
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सोहम के भाव को ध्यान-साधना के द्वारा अनुभव किया तो जा सकता है लेकिन इस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बार-बार सांसारिक प्रलोभनों के आकर्षण की रहती है। सांसारिक प्रलोभनों से व्यक्ति एक बार को ऊपर उठ भी जाए, तो ईश्वर प्रदत्त सिद्धियाँ एक बड़ी बाधा के रूप में सामने आ जाती हैं। सर्वप्रथम तो सिद्धियाँ प्राप्त ही नहीं होती हैं। लेकिन अगर वे प्राप्त हो भी जाएँ, तो व्यक्ति उसके बाद सोहम् के साधना-पथ पर आगे बढ़ने के स्थान पर सिद्धियों के चमत्कार- प्रदर्शन में उलझ जाता है और फिर उसकी उन्नति रुक जाती है।
इसलिए काग भुशुंडि जी गरुड़ जी से कहते हैं :-
हरि माया अति दुस्तर । तरी न जाइ विहगेश ।।
(उत्तरकांड दोहा संख्या 118)
अर्थात हरि की माया अत्यंत कठिन होती है। इसके पार हे गरुड़ जी! जाना बहुत कठिन होता है।
काग भुशुंडि जी गरुड़ जी से कहते हैं कि भगवान राम को प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय यह है कि भगवान के जो भक्त और दास हैं, उनका संग करो। ऐसा करने से भगवान राम की भक्ति सुलभ हो जाती है:-
राम ते अधिक राम कर दासा ।।
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 119)
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🍃🍃 रामराज्य : एक आदर्श राज्य व्यवस्था 🍃🍃
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एकनारि व्रत रत सब धारी। ते मन वच क्रम पतिहितकारी ।।
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 21)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका के अनुसार उपरोक्त चौपाई के अंश का अर्थ इस प्रकार है: “सभी पुरुष मात्र एक पत्नीव्रती हैं। इसी प्रकार स्त्रियां भी मन वचन और कर्म से पति का हित करने वाली हैं। ”
रामराज्य एक आदर्श राज्य व्यवस्था है। इसमें सब लोग सुखी हैं। सत्य का आचरण करते हैं । किसी को किसी से कोई डर नहीं है। एक दूसरे की उन्नति को देखकर सब हर्षित होते हैं । राम के राजपद पर प्रतिष्ठित होते ही तीनों लोकों में सब प्रकार का शोक समाप्त हो गया। चारों तरफ मंगल होते हैं । तुलसीदास लिखते हैं:-
राम राज बैठे त्रैलोका । हर्षित भए गए सब शोका।।
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 19)
एक अच्छी राज्य व्यवस्था में नागरिकों को किसी प्रकार के दुख नहीं होते हैं। तुलसीदास जी ने रामराज्य की बहुत सुंदर स्थिति का चित्रण एक चौपाई में किया है:-
दैहिक दैविक भौतिक तापा। रामराज नहिं काहुहि व्यापा।। सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 20)
दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों से रामराज्य में मुक्ति थी। शरीर- पर्यावरण आदि के कोई दुख नहीं है। सब में प्रेम था। सब अपने अपने कर्तव्यों का पालन करते थे।
रामराज्य की एक विशेषता यह भी थी कि उसमें कोई दरिद्र व्यक्ति नहीं था। एक और बड़ी बात यह थी कि रामराज्य में सब गुणवान पंडित और ज्ञानी लोग निवास करते थे। कोई कपट या छल के साथ व्यवहार नहीं करता था।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।… सब गुणग्य पंडित सब ज्ञानी । सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।।
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 20)
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🍃🍃 केवल अपने राज्याभिषेक से अप्रसन्न राम 🍃🍃
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जनमे एक संग सब भाई। भोजन शयन केलि लरिकाई।। करणवेध उपवीत बियाहा । संग संग सब भए उछाहा।। विमल वंश यह अनुचित एकू। बंधु बिहाई बड़ेहि अभिषेकू।।
(अयोध्या कांड चौपाई संख्या 9)
यह केवल राम ही हैं जो अपने राज्याभिषेक को सुनकर भी प्रसन्न नहीं हो रहे हैं बल्कि उल्टे यही कह रहे हैं कि हम चारों भाइयों का एक साथ खेलकूद कर पालन-पोषण हुआ, एक साथ हमारा कर्ण छेदन, यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव हुए। यह बड़ी अनुचित बात है कि केवल एक सबसे बड़े पुत्र का ही राज्याभिषेक क्यों हो रहा है? यह मौलिक प्रश्न है जो किसी ऐसे व्यक्ति के मन में ही उठ सकता है जिसे राज्य का लोभ नहीं हो।
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🍃🍃 धरमु न दूसर सत्य समाना 🍃🍃
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अगर कोई पूछे कि रामचरितमानस में सबसे सार्थक पंक्ति कौन सी है, तो मैं निश्चित रूप से अयोध्या कांड दोहा संख्या 94 वर्ग की निम्नलिखित पंक्ति को उद्धत करूंगा:-
धरमु न दूसर सत्य समाना
अर्थात सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं है अथवा यह भी कह सकते हैं कि सत्य से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं होता। यह उपदेश स्वयं भगवान राम के श्रीमुख से तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहलवाया है। अतः इसकी सार्थकता में रत्ती भर भी संदेह नहीं है। धर्म की बहुत सी व्याख्या समय-समय पर बहुत से व्यक्तियों ने की है, लेकिन “धरमु न दूसर सत्य समाना” – इससे बढ़कर धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती।
यह शब्द भगवान राम ने उस समय कहे, जब बार-बार समझाने पर भी सुमंत्र अयोध्या के लिए नहीं लौट रहे थे ।
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परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ||
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 40)
अर्थात परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं होता। दूसरों को कष्ट पहुंचाने से ज्यादा कोई अधर्म नहीं होता।
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लंका में तो कुछ क्या ही था! भगवान राम ने तो अपनी जन्मभूमि अयोध्या को बैकुंठ से भी ऊंचा स्थान दिया है। वह पुष्पक विमान से जब अयोध्या लौट रहे थे, तब सब वानरों को अयोध्या दिखाते हुए वह कहते हैं:-
यद्यपि सब बैकुंठ बखाना ।अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ ।
(उत्तरकांड चौपाई संख्या 3)
अर्थात बैकुंठ की सब लोग बहुत बड़ाई करते हैं, लेकिन वह भी मुझे अयोध्या के समान प्रिय नहीं है।
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चित्रकूट गिरि करहु निवासू
(अयोध्या कांड चौपाई संख्या 131)
यद्यपि भगवान राम के पूछने पर चित्रकूट तो बहुत सहजता से महर्षि वाल्मीकि ने बता दिया, लेकिन केवल इतने से तुलसीदास को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने वाक् चातुर्य और भक्ति प्रवणता से कुछ ऐसे स्थलों के बारे में भी बताया, जहां भगवान निवास करते हैं। उनमें से एक स्थान उन लोगों का हृदय है, जो दूसरों की संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं:-
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर विपति विशेषी।।
(अयोध्या कांड चौपाई 129)
एक अन्य स्थान पर भी भगवान निवास करते हैं। तुलसी लिखते हैं:-
जननी सम जानहिं पर नारी
एक और प्रकार के मनुष्य भी होते हैं, जहां भगवान निवास करते हैं। विशेषता बताते हुए तुलसी लिखते हैं :-
जिन्हकें कपट दंभ नहीं माया । तिन्हकें हृदय बसे रघुराया ।।
(चौपाई 129)
तुलसी ने उपरोक्त चौपाइयों के माध्यम से सच्चे सरल हृदय के स्वामित्व वाले व्यक्तियों के लिए ही ईश्वर को प्राप्त कर सकने की स्थिति पर बल दिया है। जिनके हृदय में कोई छल-कपट नहीं होता, केवल वही लोग भगवान को प्राप्त कर सकते हैं।
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🍃🍃 महाराज जनक की विदेह दृष्टि🍃🍃
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एक ही दृश्य को देखकर सबकी प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। चित्रकूट में सीता जी को तपस्वी वेश में जब नगर वासियों ने देखा तो उनको भारी दुख हुआ। तुलसी लिखते हैं:-
तापस वेश जानकी देखी। भा सबु विकल विषाद विशेषी।।
(अयोध्या कांड चौपाई संख्या 285)
अर्थात तपस्वी के वेश में जानकी को देखकर सब विकल और विषादमय हो गए।
तत्काल पश्चात जब जनक सीता को देखते हैं, तो उसी तपस्वी वेश में सीता को देखने के बाद भी उनकी प्रतिक्रिया आनंददायक होती है:-
तापस वेश जनक सिय देखी । भयउ प्रेम परितोष विशेषी।।
(चौपाई संख्या 286)
प्रतिक्रिया का यह अंतर दृष्टि और दृष्टिकोण में अंतर होने के कारण आता है। जनक जी विदेह हैं। संसार की माया को जानते हैं। सत्य के साधक हैं। कर्तव्य-पथ कंटकाकीर्ण होता है, यह बात उन्हें पता है। माया से रहित होने की स्थिति अंततः सुखप्रद और जीवन का भला करने वाली होती है, यह बात केवल तत्वज्ञानी जनक ही जान सकते हैं। इसीलिए कर्तव्य के पथ पर संयम, सादगी और सांसारिक आकर्षण से मुक्त होकर सीता को गमन करते हुए देखकर उनके हृदय को आंतरिक प्रसन्नता होना स्वाभाविक है।
दूसरी ओर सामान्य जन केवल संसार के विषय-भोगों में फँसा रहता है। उसे सांसारिक वस्तुओं की तथा सुखभोग के साधनों की उपलब्धता में ही जीवन की सार्थकता नजर आती है। ऐसे में जब सीता जी राजसी सुख-वैभव से विमुख हो गई हैं, तब सामान्य नगर वासियों का दुखी होना उनके दृष्टिकोण से गलत नहीं कहा जा सकता। वास्तव में सामान्य व्यक्ति धन-संपत्ति और सांसारिक सुख की परिधि से बाहर सोच ही नहीं पाते। यह तुलसीदास जी की कलम का चमत्कार है कि बिना कोई टिप्पणी किए हुए एक तत्वज्ञानी और साधारण समाज की दृष्टि के मतभेद को अपनी लेखनी से उजागर कर देते हैं। तुलसी की लेखनी को सौ-सौ बार प्रणाम ।
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🍃 भरत का महान चरित्र 🍃
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स्वयं राजा जनक अपनी पत्नी सुनयना से भरत के महान चरित्र की यशगाथा कह रहे हैं:-
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध विमोचनि।।
(अयोध्या कांड चौपाई संख्या 287)
अर्थात सुनयना अथवा सुलोचनि अथवा सुमुखी! मेरी बात सावधान होकर सुनो! भरत की यशकथा संसार के बंधनों से विमोचन अर्थात मुक्त करने वाली है।
भरत के चरित्र की प्रशंसा करते हुए जनक ने अपनी पत्नी सुनैना से एक और बात कही:-
परमारथ स्वास्थ सुख सारे । भरत न सपनेहु मनहु निहारे । ।
(चौपाई संख्या 288)
अर्थात परमार्थ और स्वार्थ के सारे सुखों की ओर भरत ने सपने में भी नहीं निहारा है अर्थात वह केवल भगवान राम के ही भक्त हैं।
चित्रकूट में भरत जी की उपस्थिति पूरी तरह चित्रकूट को भरतमय कर रही है। भगवान राम भी भरत की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते हैं :-
करम वचन मानस विमल, तुम्ह समान तुम्ह तात ।
(दोहा संख्या 304)
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भरत ने पादुका को राजसिंहासन पर बिठा दिया। यह विश्व इतिहास की अनूठी घटना है।
यहाँ तक होना भी कोई बड़ी बात नहीं थी। असली बात यह हुई कि भरत ने राजकाज का संचालन तो किया किंतु राजा को किस प्रकार विलासिता से परे रहकर एक तपस्वी की भांति जीवन बिताना चाहिए, यह आदर्श संसार के सामने प्रस्तुत करना भरत का सबसे बड़ा योगदान है। भरत ने नंदीग्राम में पर्णकुटी बनाकर उसमें निवास किया। तुलसी लिखते हैं:-
नंदिगांव करि पर्णकुटीरा । कीन्ह निवासु धर्मधुर धीरा।।
(चौपाई संख्या 323 अयोध्या कांड)
भवन का नाम ‘पर्णकुटी’ रखने मात्र से उद्देश्य पूरा नहीं होता। देखने वाली बात यह है कि पर्णकुटी में भरत किस प्रकार रहते थे? तुलसीदास ने भरत के रहन-सहन का चित्र प्रस्तुत किया है। लिखते हैं:-
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुश सॉथरी सँवारी ।। असन बसन बासन व्रत नेमा । करत कठिन ऋषिधर्म सप्रेमा।।
(अयोध्याकांड चौपाई संख्या 323)
अर्थात सिर पर जटाजूट है, मुनियों के पट अर्थात वस्त्र धारण किए हुए हैं, मही अर्थात पृथ्वी पर कुश की सॉथरी अर्थात आसन बिछा हुआ है। ऋषि धर्म को जो कठिन तो होता है लेकिन उसे प्रेम पूर्वक भरत निर्वहन कर रहे हैं।
इस प्रकार से नंदीग्राम में पर्णकुटी बनाकर उसमें रहने वाले भरत के चरित्र को उपमा देकर तुलसीदास जी बहुत सटीक वर्णन करते हैं :-
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चंचरीक जिमि चंपक बागा ।।
(अयोध्याकांड चौपाई संख्या 323)
अर्थात अयोध्या में चौदह वर्ष तक भरत का राजा बनकर रहना इस प्रकार था जैसे चंचरीक अर्थात भौरे का चंपक अथवा चंपा के बाग में रहना होता है। यहां तुलसीदास जी प्रकृति की इस सत्यता का आश्रय लेकर उपमा का प्रयोग कर रहे हैं कि भंवरा सब प्रकार के फूलों से स्पर्श-रस लेता है लेकिन चंपा के फूल पर आकृष्ट नहीं होता। तात्पर्य यह है कि अयोध्या में सारे राजसी सुख-वैभव के विद्यमान होते हुए भी भरत जी किसी प्रकार से भी विलासिता पूर्ण जीवन बिताने के पक्षधर नहीं थे। वह एक तपस्वी की भांति राजा का जीवन बिता रहे थे। उनकी आंखों के सामने राम लक्ष्मण और सीता के वन में निवास करने का चित्र सदैव उपस्थित रहता था। जहां एक ओर भरत जी राम के समान वन में रहने का अभ्यास अयोध्या नगर में रहते हुए निभा रहे थे, वहीं दूसरी ओर वह इस बात का मार्गदर्शन भी विश्व को कर पा रहे थे कि राजा को किस प्रकार का जीवन व्यतीत करना चाहिए। अपने व्यक्तिगत सुख सुविधा के लिए राजकोष को व्यय करना एक राजा को शोभा नहीं देता। उसे तो कम से कम खर्च में अपनी दिनचर्या को ढालना होता है।
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🍃🍃 नवधा भक्ति 🍃🍃
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अध्यात्म की गहरी बातें रामचरितमानस में तब देखने को मिलती हैं, जब राम शबरी से उसके आश्रम में जाकर मिलते हैं। भगवान राम शबरी से नवधा भक्ति अर्थात नौ प्रकार की भक्ति की बात कहते हैं। यह इस प्रकार हैं:-
प्रथम भगति संतन कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।। गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान। चौथी भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।। मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा ।। छठ दम शील बिरति बहु कर्मा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा। सातवें सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा || आठवँ जथा लाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ।। नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हर्ष न दीना । ।
(अरण्यकांड दोहा संख्या 34 एवं 35)
भगवान शबरी के स्वादिष्ट कंद मूल फल खाते हैं और प्रसन्न होकर शबरी को नौ प्रकार की भक्ति के बारे में बताते हैं।
पहली भक्ति संतो का संग है। दूसरी भक्ति ईश्वर की कथा के प्रसंग में रुचि है। तीसरी भक्ति अमान अर्थात अभिमान से रहित होकर गुरु के चरणों की सेवा है। चौथी भक्ति कपट को त्याग कर ईश्वर का गुणगान करना है। पाँचवी भक्ति भगवान के नाम का स्मरण करने में दृढ़ विश्वास है। छठी भक्ति दम अर्थात इंद्रियों का निग्रह, शील अर्थात चरित्र तथा वैराग्य लेते हुए निरंतर सज्जनता के धर्म का अनुसरण है। सातवीं भक्ति संपूर्ण जगत को राममय देखना है तथा संतो को भगवान से भी अधिक महत्व प्रदान करना है। आठवीं भक्ति यह है कि जो मिल जाए, उसी में संतोष करना तथा सपने में भी दूसरों के दोषों को न देखना है। नवीं और अंतिम भक्ति सरल स्वभाव रखते हुए छल-विहीन जीवन बिताना है। ऐसा जीवन जो ईश्वर पर भरोसा करे और जिसमें कोई हर्ष और दीनता अथवा विषाद नहीं हो। इन नौ प्रकार की भक्ति का जीवन में आश्रय लेकर व्यक्ति जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है अर्थात परमात्मा का दर्शन उसे सुलभ हो जाएगा।
राम कहते हैं :-
मम दर्शन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज स्वरूपा।।
(अरण्यकांड चौपाई संख्या 35 )
अर्थात जो ईश्वर का दर्शन कर लेता है, वह अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। इसका गहरा आध्यात्मिक अर्थ है क्योंकि परमात्मा को देखने के बाद अथवा अपने अंतःकरण में पहचान लेने के बाद व्यक्ति परमात्मा के समान ही सर्वव्यापक और निराकार रूप को प्राप्त कर लेता है। वह सब प्रकार की क्षुद्रताओं से परे चेतना के असीमित आकाश में प्रवेश कर जाता है वह जीव के स्थान पर ब्रह्मरूप ही हो जाता है।
परमात्मा की कृपा से रामचरितमानस हमें “नवधा भक्ति” के माध्यम से ईश्वर के निराकार सर्वव्यापक रूप को जानने का अवसर उपलब्ध करा रहा है। इसे जानकर हम ब्रह्मरूप हो पाएँ, परमात्मा से इसी कृपा की हम आकांक्षा करते हैं।