रात हमारी तुम बिन…
२- रात हमारी तुम बिन….
कभी उभरती पीर, कभी आस बिखरती है।
रात हमारी तुम बिन, कुछ ऐसे गुजरती है।
दिन ढल जाता यूँ ही, कामों के बोझ तले।
साँझ हमारी पलकों पे, धीमे से उतरती है।
रहती है याद तुम्हारी, हर पल साथ हमारे,
तप विरहानल में, मुहब्बत और निखरती है।
हवा साथ ले आती खुशबू तुम्हारे बदन की,
शाख कोमल मन की, कंपती-सिहरती है।
बँधती है कभी जब आस तुम्हारे आने की,
रूह भी हमारी इठलाती सजती-सँवरती है।
चेतना उर्ध्वगामी हो शून्य में हुई समाहित,
हुई विलीन प्रिय में, खुद से ही अब डरती है।
प्रेमातिरेक में बेसुध, राधा हो जाती मोहन,
पर अधरान धरी बंसरी अधरा न धरती है।
चूमती पदचिह्न तुम्हारे बंजारन नयनों की,
खोजे तुम्हें अनथक एक ठौर न ठहरती है।
कैसी लगी दिल की जिद है तुम्हें पाने की,
जितना समझाऊँ इसे उतना ही विफरती है।
समा जाती ‘सीमा’में असीम उड़ान मन की,
परवाज़ परिंदे की, जब जग को अखरती है।
-डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)