रात रेत की तरह फिसलती हुई, सुबह की ओर बढ़ने लगी।
रात रेत की तरह फिसलती हुई, सुबह की ओर बढ़ने लगी,
जज्बातों की लपटें राख बनकर, ठंडी धरा पर बिखरने लगी।
तेरे शहर में खामोशी थी, पर मेरी आहटें शोर करने लगीं,
यादों की खिड़कियाँ यूँ खुलीं कि, अब साँसें मेरी थमने लगीं।
तेरे अस्तित्व की ये धुंध, मेरी आवारगी से बातें करने लगीं,
मुस्कुराहटों पर जो मेरे कर्ज है, उनकी किस्तें भी ये भरने लगीं।
कभी सूरज था मेरा सारथी, पर अब सितारों संग महफिलें मेरी जमने लगीं,
होश की मोहब्बत नहीं, अब बेखुदी की इश्क़ में उम्र ढलने लगी।
यूँ कारवाओं के निकाले गए, कि तन्हाई की राहें सजने लगीं,
एक आशियाँ था निगाहों में बसा, जिसकी क़ब्र मसान में जलने लगी।
दर्द यूँ लिहाफ ओढ़े के बैठी कि, आँखें अश्कों के लिए तरसने लगीं,
ओस की बूंदों को उठा कर ख़्वाहिशें, नरम अधरों पर धरने लगीं।
वो मुलाकातें अफ़साना हुई, गूँजें जिनकी वक़्त तले दबने लगीं,
टूटते तारे की दुआएं भी टूट गयीं, जो मेरी तमन्नाओं से वो बंधने लगीं।
मासूमियत बस छलावा सा रहा, जो लकीरें खंजरों में बदलने लगीं,
अब एक ज़हर है जो नसों में घुला है, जो वजह इस ज़िन्दगी की बनने लगीं।