रात भर
212 212 212 212
काफिया आती
रदीफ रही रात भर
रूठ के नींद जाती रही रात भर
सूर्य दिल में उगाती रही रात भर ।
छोड़ कर हाथ जब जा रही जिंदगी
क्यों हमें याद आती रही रात भर ।
वो उठे और चल भी दिये साथ में
दीप फिर क्यूँ जलाती रही रात भर ।
देख के हाल उसका हुआ था यकीं
दर्द -दरिया नहाती रही रात भर ।
चाहतें यूँ रुलाती रहीं हैं हमें
पीर ज्यूँ कुलबुलाती रही रात भर।
रात करवट बदलते गुजारी गयी
नींद आँखें मिलाती रही रात भर ।
खोल दर पिंजरे के सभी पंखिनी
दर्द में फड़फड़ाती रही रात भर ।
सागरों से बहे जा रहे थे नयन
नीर आँखें छिपाती रही रात भर ।
स्वरचित ,मौलिक
मनोरमा जैन पाखी
मध्यप्रदेश