रात अज़ब जो स्वप्न था देखा।।
रात स्वप्न का खुला झरोखा,
भरा कौतुहल अजब अनोखा।
कथनी और करनी में अंतर,
जीवन भर का लेखा जोखा।।
देख देख कर हम पछताये।
न स्वप्न हमारा सच हो जाये।।
घनघोर सूने से अधियारों में,
यूँ भटक रहे थे गलियारों में।
सहयोगी के नाम पर साया,
छिप गए वह भी दीवारों में।।
छोड़ के घर क्यों हम थे आये।
न स्वप्न हमारा सच हो जाये।।
जीवन की कुछ घटनाओं से,
छोटी छोटी सी विपदाओं से।
तार तार हुए जब पर्दे घर के,
मोह भंग हुए भावनाओं से।।
टूटे रिश्ते क्यों जुड़ नहीं पाये।
न स्वप्न हमारा सच हो जाये।।
लाभ-हानि जोड़-तोड़ में माहिर,
दिल से बड़ा दिमाग था शातिर।
मन विचलित है असमंजस में,
चीख रहा अब किसके खातिर।।
खुली आँख बिस्तर पर पाये।
न स्वप्न हमारा सच हो जाये।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित १८/११/२०२३)