राज दिल के
राज़ दिल के
नारी थी मैं, श्रद्धा थी, त्यागमूर्ति थी, प्रेमबंधी थी
कैसे कहती राज़ दिल के, सीता थी, राधा-मीरा थी।
शापित प्रभु की बाट जोहती, राज़ दिल के किसे खोलती ?
छल, अपयश की भागी थी, मैं अहिल्या, ऋषि की पत्नी थी।
मैंने भी संग जाना चाहा, पति से विमुख कहां रहना था?
संस्कार संग प्रेम विवश थी, मैं उर्मिला थी, यशोधरा थी।
पुत्र मोह था, ममता थी, लोक कल्याण चिंता भी थी
विधि ने जो करना चाहा था, मैं कैकेई किससे कहती?
मां का मन तिल-तिल रोया था, लोकहित संग बात बचन की
कौशल्या लेकिन किससे कहती, राज़ जो दिल में रखी थी?
मैं असहाय अबला बेबस थी, रोज़ी-रोटी की चिंता थी
व्यभिचारी दुनिया की बातें, राज़ दिल के किसे खोलती?
पति माफिया, देश का दुश्मन, मैं निरुपाय दुर्जन की संगी
कब तक उसकी खैर मनाती, राज़ दिल के दिल में रखती?
ऊपर धूप में जलता छाता, नीचे घिसता पल-पल चप्पलें
राज़ दिलों के किससे कहते, बाग़-वृक्ष से बाहर बंदर?
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–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।