राज्यों के चुनाव निरर्थक हैं
राज्यों के चुनाव निरर्थक हैं
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राज्यों के चुनाव अनिवार्य रूप से केंद्रीय नेतृत्व के प्रति जनादेश की कसौटी नहीं होते हैं। काफी हद तक केंद्रीय नेतृत्व राज्यों में अपनी छवि के आधार पर उन चुनावों को नियंत्रित करता है। लेकिन, प्रमुखता से मुख्यमंत्री पद के दावेदारों , चुनाव में विधायक पद के लिए खड़े हुए उम्मीदवारों का चयन, स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ताओं का उत्साह तथा राज्यों में विशेष रूप से राज्य स्तरीय अथवा विधानसभा स्तर पर जिस प्रकार की कार्यप्रणाली संगठन और अन्य जिम्मेदार लोगों द्वारा अपनाई गई होती है- उसका बहुत कुछ प्रभाव चुनाव के परिणामों पर पड़ता है।
दुर्भाग्य से हमारे देश में पाँचों साल, लगभग हर साल कहीं न कहीं, किसी न किसी राज्य में और अगर कुछ नहीं तो कोई स्थानीय नगर पालिका आदि के चुनाव होते रहते हैं । अर्थात अगर 5 साल तक चलने वाले इन सारे चुनावों को केंद्रीय नेतृत्व के प्रति जनादेश माना जाए, तब 5 साल तक कठोर कदम उठाना किसी भी शासन के लिए बहुत कठिन हो जाएगा। वास्तव में होता भी ऐसा ही है । हर थोड़े-थोड़े समय पर चुनाव आते रहते हैं और उन चुनाव परिणामों के द्वारा वातावरण विरोधी न मान लिया जाए, कहीं जनादेश केंद्र के खिलाफ लोग न मानने लगे- इस अप्रिय स्थिति से बचने के लिए केंद्रीय नेतृत्व राज्यों के चुनावों तक में अपनी पूरी ताकत झोंक देता है। हमारा मानना है कि इससे राजकाज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, सरकार की क्षमताएं दुर्बल होती हैं, सरकारी मशीनरी 5 साल तक चुनावों में व्यस्त रहती है । इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि चुनावों की समूची संरचना पर नए सिरे से विचार करना आवश्यक है।
ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि एक बार देश में चुनाव हो जाएं और फिर अगले 5 वर्षों तक चुनी हुई सरकार पूरी क्षमताओं के साथ देश के विकास के लिए कार्य करे। यहां हम राज्य सरकारों की उपादेयता पर प्रश्न चिन्ह लगाना उचित समझते हैं। अगर राज्य में राज्य सरकार का शासन चलना है, तब प्रश्न यह है कि केंद्र सरकार का शासन कहां चलेगा ? राज्य में तो अगर हम मानते हैं कि राज्य सरकार शासन करेगी , राज्य सरकार की इच्छा प्रमुख होगी , जो राज्य सरकार चाहेगी वहीं कार्यक्रम उसी प्रकार से अमल में लाए जाएंगे ,तो प्रश्न उठता है कि केंद्र क्या केवल उन्हीं राज्यों में वास्तव में कार्य कर पाएगा जहां पर उसके दल की सरकारें हैं ? ऐसे प्रदेश जहां केंद्र सरकार से भिन्न राजनीतिक दल की सरकारें हैं , वहां केंद्र की सत्ता क्या शून्य हो जाएगी ?
यह देखने में आया है कि केंद्र और राज्यों का टकराव राष्ट्र हित में नहीं है ।केंद्र में सत्तारूढ़ दल तथा राज्य में सत्तारूढ़ दल अलग अलग राजनीतिक विचारों का होता है तो यह गाड़ी को परस्पर विपरीत दिशाओं में खींचने वाला कार्य होकर रह जाता है । दोनों प्रकार की सत्ताएं एक दूसरे का विरोध करना, एक दूसरे के कार्यक्रम को लागू ना होने देना तथा उसमें अड़ंगा डालना 5 साल तक जारी रखती है। यही बात कमोवेश शहरी या स्थानीय ग्रामीणों निकायों के मामलों में भी देखने में आती है ।अगर हम यह विचार करें कि राज्यों की आवश्यकता नहीं है तो सोचिए कि क्या इससे कोई बहुत ज्यादा फर्क पड़ जाएगा ?
अगर राज्य नहीं होंगे और सीधे हम एक केंद्रीकृत व्यवस्था स्थापित कर दें और जो अलग अलग राज्य हैं उनकी राज्य सरकारों की आवश्यकताओं को हटा दें, तो देश का बहुत भारी पैसा, समय और श्रम बच सकेगा । प्रांतवाद की उग्रता पर भी रोक लगेगी ।
स्थानीय निकायों की व्यवस्था के संबंध में मेरा विचार यह है कि हम लोकसभा का चुनाव करें और लोकसभा का सदस्य प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में सम्पूर्ण शहरी तथा ग्रामीण स्थानीय निकाय का पदेन अध्यक्ष होना चाहिए। स्थानीय निकायों में पदेन अध्यक्ष के अलावा लगभग 50 सदस्यों का स्थानीय स्तर पर चुनाव जिन्हें चाहे हम सभासद के नाम से संबोधित करें या कोई अन्य नाम दें- लेकिन एक प्रकार की मिनी पार्लियामेंट छोटे स्तर पर, लोकसभा स्तर पर, हम गठित कर सकते हैं । इसमें जो व्यवस्था मैं प्रस्तावित कर रहा हूं , उसमें 5 साल से पहले चुनाव होने की नौबत नहीं आएगी और केवल एक तो लोकसभा सदस्य का चयन तथा मिनी पार्लियामेंट के लिए लगभग 50 लोगों का चयन,– केवल यही दो चुनाव देश में होंगे। वह भी दोनों चुनाव एक साथ होंगे।
प्रशासन की दृष्टि से पूरा देश चाहे जितनी प्रशासनिक इकाइयों में सुविधा अनुसार विभाजित किया जा सकता है। निश्चय ही प्रशासन और शासन उपरोक्त व्यवस्था में ज्यादा बेहतर ढंग से चलेगा। बार बार जनादेश लेना ,हर साल जनादेश प्राप्त करना और हर साल जनादेश पर प्रश्न चिन्ह लग जाना यह देश के लिए शुभ लक्षण नहीं है।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 999 7 615451